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माया के स्वरूप और भेद
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माया के स्वरूप और भेद 

माया विभेदबुद्धिर्निजांशभूतेषु निखिलभूतेषु ।
नित्यं तस्य निरङ्कुशविभवं वेलेव वारिधिं रुन्धे ।
स तया परिमितमूर्त्तिः सङ्कुचितसमस्तशक्तिरेष पुमान् ।
रविरिव सन्ध्यारक्तः संहृतरश्मिः स्वभासनेऽप्यपटुः ।
माया विभेदबुद्धि की जननी है । जैसे समुद्र तरङ्गें कभी एक अन्य से तथा कभी वेलाभूमि से स्पर्द्धा करते हुए रुन्धित (आवरित – रु॒धिँ॑र् आ॒वर॑णे) करते हैं, जिससे वह परिमित (सीमित) हो जाते हैं तथा भिन्न प्रतीत होते हैं, उसीप्रकार माया सबका शक्ति सङ्कुचित करते हुए वस्तुस्वरूप को उसीप्रकार आच्छादित कर भ्रमदृष्टि सृष्टि करता है, जिसप्रकार अस्त समय में जैसे सूर्य अपना रश्मि को संहृत कर अन्धकार को जन्म देते हैं । माया ब्रह्म का शक्ति होने से सर्वप्रथम ब्रह्म का स्वरूप जानना चाहिए ।
रसो वै सः – इस तैत्तिरीय श्रुति में कहा गया है कि असत् – अप्रकट – अव्यक्त – प्रकृति से व्यक्तप्रकृति प्रकट हुआ, जिसे स्वयं को प्रकट करने के कारण सुकृत कहते हैं । उस सुकृत को सबसे बृहत होने के कारण (बृहँऽ [वृहँऽ] वृद्धौ॑), अथवा प्रथम सृष्टि उद्यमकारी होने के कारण (बृहूँ उ॒द्यम॑ने), अथवा सबका बृंहण – विस्तार करने के कारण (बृहिँऽ [वृहिँऽ] भा॒षार्थः॑), अथवा सबको धारण (भृ॒ञ् भर॑णे) और पोषण (डुभृ॒ञ् धारणपोष॒णयोः॑) करने के कारण ब्रह्म कहते हैं । उसका स्वरुप रसमय है । उसके पराशक्ति को बल कहते हैँ । यह दोनों अविनाभावी – एक अन्य से भिन्न नहीं रहते हैं । अतः यहाँ अद्वैत का विरोध नहीँ है । रस और बल एक ही तत्त्व के दो अन्तर्निहित धर्म है । बलोपेत रस धर्मी है ।
मूल रूपसे यह रस और बल दोनों निर्धर्मक हैं । मौलिक धर्ममें सत्तासिद्ध धर्म का निरोध माना जाता है (सामान्यविशेषेषु सामान्यविशेषाभावात्तत् एव ज्ञानम् – कणादसूत्रम् 8-1-5) । न ही उसमें अनेक भातिसिद्ध (जो वास्तव में है नहीं, परन्तु हम उसे व्यवहार करते हैं जैसे कि वह है – जैसे कि काल) धर्म ही उदय होते हैं । परात्पर और अव्ययमें श्रुतिसिद्ध धर्म भातिसिद्ध है । अक्षर तथा क्षर में वह सत्तासिद्ध तथा भातिसिद्ध – दोनों है ।
बल् धातु वेष्टन कर धारणपोषण करने के अर्थ में व्यवहार किया जाता है (बलँ प्राण॑ने धान्यावरो॒धे च॑ । दधातीति धान्यम् – डुधा॒ञ् धारणपोष॒णयोः॑ धा + दधातेर्यन् नुट् च) । बल किसे वेष्टन करता है ? रस को । रस क्या है ? ब्रह्म, जो सबको सृष्टि कर सबमें प्रविष्ट है (तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् – तैत्तिरीयोपनिषद् 2-6), वही अपने अशनाया के कारण सबका आस्वादन और स्नेहन (पिण्डीकरण) करता है । अतः उसे रस कहते हैं (रसँ आस्वादनस्नेह॒नयोः॑) । बल के क्षय तथा उदय के समय बलाश्रय रस तटस्थ रहता है – बल के आधारभूत रस का क्षय अथवा उदय नहीं होता । अतः यह दो तत्त्व है । परन्तु रस में प्रबुद्ध बल का स्वरूप रस से भिन्न होता है । उसीप्रकार बल से युक्त रस का स्वरूप रस से भिन्न होता है । अन्वाहित (परस्पर मिले हुए) हों अथवा व्यतिरिक्त (परस्पर भिन्न) हों – दोनों अवस्था में उनकी सब प्रकार से विपरीत वृत्ति होती है ।
ब्रह्म रस अमृत, पूर्ण, अखणड, शान्त, शिव, शास्वत, रूपमय, अनादि, अनन्त, असङ्ग, अव्यय, निर्गुण, निष्कल, एक एवं अक्रिय है । वह जगत की नित्यप्रतिष्ठा है – सबका आधार है । जगत् समष्टि रूप से कभी नाश नहीं होता । वह सर्वबीज तथा सर्वविकास है । उसका स्वरूप अस्त्, नास्ति, सत्ता और विनाश है । वह विभु होने से अखण्ड तथा निष्क्रिय है । वह सब कर्मों का आधार है । उसका नाश, क्षय, बृद्धि, विकार आदि नहीं होता । न वह बद्ध है न मुक्त है । वह उपर, नीचे, बाह्य, अभ्यन्तर सर्वत्र सम रहता है । वह सदा सत् रहता है । इसलिए उस सत् में स्थित कर्म को भी सद् कहाजाता है । असत् कर्म कैसे सत्ता प्राप्तकरता है, यह जाना नहीं जा सकता । इसीलिए माया की सत्ता को अनिर्वचनीय कहा जाता है ।
बल क्षुब्ध, क्षणिक, प्रदेशयुक्त, घोर, मित, शून्य, अनेक, अल्पवत्, प्रतिक्षण अपूर्ण, स्वलक्षण, क्रियात्मक, भूरिकल (अकल का प्रतिलोम), तथा महागुण है । क्षुब्ध दुःखयोनि है । पृथक् सत्ता न होने के कारण किसी देशकाल में सत्तारहित होने से शून्य है । जो हो कर नष्ट हो जाता है, उसे कर्म कहते हैं (भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः – गीता 8-3) । प्रत्येक क्षणिक कार्य विलक्षण होते हैं । एक का दृष्टान्त अन्य में मिलना असम्भव होने से कर्म को स्वलक्षण कहा जाता है । क्रिया दो प्रकार के होते हैं । एक देशत्यागरूपा (स्थानान्तर गति) दैशिक क्रिया है । अन्य परिणामरूपा कालिक क्रिया है । क्रिया ही धारावाहिक हो कर गुणरूपता को प्राप्तकरती है । इसलिए वह सर्वगुणरूप महागुण है – गुणों का आश्रय है ।
ब्रह्म रस अकर्म रूप अमृत है । क्रिया का आश्रय होते हुए भी कभी उसकी नास्ति नहीं होती है । क्रिया परिच्छिन्न वस्तु में कम्प (स्थानच्युति – तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषाम् – wave) सृष्टि करती है । विभु में अवयव के अभाव होने से उसमें स्थानच्युति नहीं हो सकती । अव्यय होने से उसमें परिणाम नहीं होता । इसलिए वहाँ कोइ भी क्रियाविशेष जात नहीं हो सकती । वहाँ क्रिया भी स्वयं शान्त हो जाती है । बल नित्य मरणधर्मा कर्म रूप मृत्यु है । कर्म के द्वारा पूर्व स्थिति के बन्धन से मुक्ति (मुच्यति) होता है । इसलिए उसे मृत्यु कहते है । बल स्वयं मरता है तथा अपने सम्बन्ध से अन्य को मारता भी है । यह बल की दृष्टनष्टरूपता है ।
अमृत को पवित्र तथा मृत्यु को पाप्मा कहते हैं । एकान्ततः बल के तारतम्य ही सबको पवित्र भी करता है और कालुष्य भी । वह पाप्मा को पवित्र करने से पवित्र है तथा कलुषित करने से कालुष्य भी है । एकान्ततः वह न सत् है न असत् है । वह जगत् को न प्रसन्नता देनेवाला है न कल्मश । सत् असत् रूप से असत्व के साथ योग को ही कालुष्य कहते हैं । बल अपने बन्ध सम्बन्ध से विशेषरूप से भावोदयन रूप विकार को प्राप्त होता है, उसका विज्ञान को आवृत करता है, तथा अमृत को आवरित कर लेता है । इसलिए उसे पाप्मा तथा कालुष्य कहते हैं । यह जगत् दोनों से ही उत्पन्न हुआ है । इसलिए यहाँ प्रसाद (पवित्रता) तथा कल्मश (पाप्मा) दोनों ही प्रतीत होते हैं ।
ब्रह्मरस निर्विशेष है । रस का सम्बन्ध आनन्द से है । आनन्द का स्वरूप सर्वस्वातन्त्र्य है (आनन्दशक्तिः स्वातन्त्र्यं सार्वत्रिकमुदीरितम्) । सर्वस्वतन्त्र होने से ब्रह्म ही रस है । रसनेन्द्रियग्राह्य वस्तु को ही रस कहते हैं । वह चेतन का स्वभाव है । सर्वचैतन्य होने से ब्रह्म ही रस है । शृङ्गारादि स्थायीभाव को भी रस कहते हैं । ब्रह्म ही सबकी प्रतिष्ठा होने से वह परमस्थायी है । रसोऽहमप्सु कौन्तेय (गीता 7-8) के अनुसार रस ही अप् का निचोड है । आपोमय परमेष्ठी से जगत्सृष्टि होने के कारण ब्रह्म ही रस है ।
वह रस सबमें सामान्य रूप में पाया जाता है । अतः वह सामान्य तथा निर्विशेष है । अपरिवर्त्तनीय मौलिकतत्त्व रस सबका गति-परायण-अवष्टम्भ है । शुद्ध रूप से उसके पराशक्ति बल भी निर्विशेष है । रस-बल के संसर्ग से विविध विशेष (विशेषताएं – भेद) उदित होते हैं । निर्विशेष सविशेष होता है । यह विशेष रूप कहाँ से आते हैं, कहाँ जाते हैं, यह न जानने के कारण इसे माया कहा जाता है । माया शब्द का अर्थ जिससे परिमित (परिच्छेद) कर के किसीका मान निर्धारण किया जाता है (मा॒ङ् माने॑) । स्वरूप संसर्ग के कारण रसमें स्थित बल से मात्रा और संस्था – यह दो विशेष होते हैं । बल स्वयं मित (सीमित) है । उसके सम्बन्ध से अमित (असीमित) रसमें भी मिति दिखती है । उसे ही मात्रा कहते हैं । मात्रामें रस का जो परिच्छेद रूप दिखाइ पडता है, उसे संस्था कहते हैं । इन के उद्भव में मिति (माया) साधन है । मिति वास्तवमें रसमें नहीं है । परन्तु वह रसमें प्रतीत होता है – जैसे इन्द्रजाल हो । एक धर्म अन्य धर्ममें कैसे दिखता है, वह अनिर्वचनीय है । अतः मात्रा और संस्था दोनोंको भी माया कहा जाता है ।
जिस प्रक्रियामें रस और बल संसर्ग से छन्दित हो कर मित (सीमित) होते हैं, उसे छन्द कहते हैं । इससे मात्रा और संस्था दोनों छन्दित होते हैं । अतः मात्राछन्द और संस्थाछन्द भेद से छन्द दो प्रकार के है । दिग्-देश-काल से प्रमित (सीमित) छन्दको मात्राछन्द कहते हैं । सीमित होने पर जो वृत्त (आकृति) वनता है, उसे संस्थाछन्द कहते हैं । वर्ण तथा मात्रा नियम को भी छन्द कहते हैं । वह भी सीमित करने के कारण मिति ही है । इससे निबद्ध वाक् को वृत्त कहते हैं । वही संस्था है । मिति से छन्द, छन्द से वृत्त, छन्द-वृत्त से वर्ण, वर्णवृत्त से जाति तथा व्यक्ति – इसीप्रकार उत्पत्तिक्रम चलता है । वैदिक परिभाषा में मात्रा और संस्था को ही छन्द कहा गया है (“मा च्छन्दः, प्रमा च्छन्दः, प्रतिमा च्छन्दः”, “इयं वै मा, अन्तरिक्षं प्रमा, असौ प्रतिमा” आदि) ।
मा छन्दः, तत्पृथिवी, अन्निर्देवता ॥ १ ॥
प्रमा छन्दः, तदन्तरिक्षम्, वातो देवता ॥ २ ॥
प्रतिमा छन्दः, तद् द्यौः, सूर्यो देवता ॥ ३ ॥
अस्त्रीवि छन्दः, तद्दिशः, सोमो देवता ॥ ४ ॥
विराट् छन्दः, तद्वाक्, वरुणो देवता ॥ ५ ॥
गायत्री छन्दः, तदजा, बृहस्पतिर्देवता ।। ६ ।।
त्रिष्टुप् छन्दः, तद्धिरण्यम्, इन्द्रो देवता ॥ ७ ॥
जगती छन्दः, तद्यौः, प्रजापतिर्देवता ॥ ८ ॥
अनुष्टुप् छन्दः, तद्वायुः, मित्र देवता ।। ९ ।।
उष्णिहा छन्दः, तच्चक्षुः, पूषा देवता ॥ १० ॥
पङ्किश्छन्दः, तत्कृषिः, पर्जन्यो देवता ॥ ११ ॥
बृहती छन्दः, तदश्वः, परमेष्ठी देवता ॥ १२ ॥’
आपस्तम्बश्रौतसूत्र (१६ । २८ । १) ॥
कृति का अर्थ उत्पत्ति है । जात्याकृति और व्यक्तिकृति वर्णछन्द हैं (मा॒ङ् माने॒ शब्दे॑ च) । इससे वर्णवृत्त वनता है । जिसका मित (मायाकृत) वर्णरूप दिखाइ देता है (मिति से मित हो कर जो स्वरूप वनता है), उसे पिपर्ति (पूरयति बलं यः) – बल को मित कर भरण करने से, अथवा सबका अग्रगामी होने से (पुरति अग्रे गच्छतीति), अथवा सीमित पुर में शयन करने से (पुर्षु शेते य) पुरुष कहा जाता है (शयानो याति सर्वतः – कठ 1-2-21) । शयानो सुषुप्तावस्था । उसमें इन्द्रिय सम्पर्क विच्छिन्न होने से विषय सम्पर्क भी विच्छिन्न होता है । तव उस अविच्छिन्न तत्त्व का विषय संपृक्ति नहीं रहने से दिवि च भुवि च अव्याहत गति होता है । शयानो स्वप्न भी हो सकता है । उसमें विषयव्यापार नहीं होता । परन्तु मन का व्यापार होता है । यह जाग्रत और सुषुप्ति का सान्ध्यावस्था । उसमें भी नूतनसृष्टि होता है (सन्ध्ये सृष्टिराह ही – ब्रह्मसूत्रम् – ३-२-१) । द्वादशतत्त्वयुक्त उस पुरुषका जगत् से भेद करनेवाली षष्ठ तत्त्वको माया कहाजाता है (इदं जगदित्याकारिका ईश्वरनिष्ठा भेदविषयिणी वृत्तिः मायापदवाच्या षष्ठं तत्त्वम्) । यह सामान्य अथवा साधारण माया है । इसके दोभेद महामाया और योगमाया हैं ।
रस-बल की समष्टि अहम् नामक सजातीय-विजातीय-स्वगत भेदशून्य एकमेवाद्वितीयं (छान्दोग्य ६-२-१) अद्वैतब्रह्म है । सत्तासिद्ध रसतत्त्व के आधार में प्रतिष्ठित भातिसिद्ध परिवर्तनशील, क्षणभावापन्न – अतः प्रतिक्षण विलक्षणशील असंख्य बल तत्व का आधारभूत बलकोश का संख्या १६ है । इनमें प्रथम बल माया ही है ।
ब्रह्म ह वा इदमग्र आसीत् । …… तदभ्यश्राम्यदभ्यतपत् । तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य सन्तप्तस्य ललाटे स्नेहो यदार्द्द्रमाजायत । ….. सर्वेभ्यो रोमगर्त्तेभ्यः पृथक् स्वेदधाराः प्रास्यन्दन्त । ….. तद्यदब्रवीदाभिर्वा अहमिदं सर्वं धारयिष्यामि यदिदं किञ्चेति तस्मात् धारा अभवंस्तद् धाराणां धारात्वं यच्चासु ध्रियते ।
तद्यदब्रवीदाभिर्वा अहमिदं सर्वं जनयिष्यामि यदिदं किञ्चेति तस्माज्जाया अभवंस्तज्जायानां जायात्वम् । …..
तद्यदब्रवीदाभिर्वा अहमिदं सर्वमाप्स्यामि यदिदं किञ्चेति तस्मादापा अभवंस्तदपामप्त्वम् । …..
उपरोक्त क्रम से माया, धारा, आपः, जाया, हृदयं, भूतिः, यज्ञः, सूत्रं, सत्यं, यक्षं, अभ्वं, मोहः, वयः, वयोनाधः, वयुनं, – यह बल प्रधान – रस गौणात्मक पञ्चदश अविद्या तथा षोडशतम विद्या नामक रस प्रधान – बल गौण बलकोश का सृष्टि होता है । सत्तासिद्ध अमृतरसलक्षण मूलप्रतिष्ठा के उपर प्रतिष्ठित भातिसिद्ध बलों का परष्पर सम्बन्धतारतम्य ही पञ्चपर्वा प्रकृति के द्वारा अनुप्राणित गुणभूतात्मक क्षरब्रह्मलक्षण विश्वसृट् (ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र-अग्नि-सोम), अणुभूतात्मक पञ्चीकृत क्षरलक्षण पञ्चजन (प्राण-आप-वाक्-अन्नाद-अन्न), रेणुभूतात्मक पञ्च-पञ्चीकृत क्षरलक्षण पुरञ्जन (वेद-लोक-प्रजा-भूत-पशु), तथा भूत-भूतात्मक पञ्च-पञ्च-पञ्चीकृत क्षरलक्षण पुर (स्वयम्भू-परमेष्ठी-सूर्य-पृथिवी-चन्द्रमा) – इस चतुर्धा क्रम से परिणत हो कर अन्ततोगत्वा सर्वथा निरूढा यौगिकावस्थामें आ कर सर्वात्मक पञ्चमहाभूतमें विश्रान्ति होता है । इन सब प्रक्रमों से, प्रक्रमसमष्टि रूप अभिक्रमों से, तथा अभिक्रमसमष्टि रूप बलव्यूह से रसाधारमें प्रतिष्ठित बलों का सम्बन्धके तारतम्यों का साम्राज्य है । इसीलिए इस बलतत्त्व को सबका मूलाधारभित्ति कहा जाता है । कहा गया है –
बलं वाव विज्ञानाद्भूयः । बलमित्युपास्व ।
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।
बलं सत्यादोजीयः । आदि ।
इन बलों का ३ मूल विभाग और २१ अवान्तर विभाग है ।
१) स्थिरधर्म प्रयोजक बल – भार, आयतनं, स्थानविरोध, विभाज्यता, सान्तरत्वं, संगठनं, स्थितिस्थापकता, चापनं, जडत्वं, अविनश्वरत्वम् ।
२) अस्थिरधर्म प्रयोजक बल – शैत्यम्, आकुञ्चनं, कठिनत्वं, वर्णरूपं, क्षणभङ्गुरत्वं, घनत्वं, द्रवत्वं, विरलत्वम् ।
३) सव्यपेक्षधर्म प्रयोजक बल – नोदना बलं, केन्द्रापगबलम्, आकर्षणबलम् ।
इनका भी नाना अवान्तर विभाग है । यथा नोदना बल के अवान्तर विभाग – पूर्वदेशत्याग-उत्तरदेशसंयोगात्मक गतिबल, बलयोनि-बलमात्रानुबन्धी बलोपनिषद् बल, सम-विषम-वेग-भावानुबन्धी समदिग् बल, सरल-बक्रादिभावानुबन्धी नानादिग् बल, प्रतिदिग्बलद्वयघातात्मिकास्थिति-नानाबलघातपरिवृत्ति-आदि निबन्धन प्रतिदिग्बल आदि ।
प्राणस्य ही क्रियाशक्तिर्बुद्धेर्विज्ञानशक्तिता ।
द्रव्यस्फुरणविज्ञानमिन्द्रियाणामनुग्रह ।
रस का एक प्रदेश को त्याग कर अन्य प्रदेशमें जानेवाला बल ही क्रिया है । क्रिया परिच्छिन्न वस्तुमें कम्प अर्थात स्थानच्युति करती है । परन्तु रस विभु होने से अवयवरहित है । सर्वत्र उसका उपस्थिति है । अतः उसमें स्थानच्युति सम्भव नहीं है । वह अच्युत है । क्रिया भी वहाँ आ कर शान्त हो जाती है । वह अव्यय है । अतः उसका औपादानिक अथवा लाक्षणिक परिणाम नहीं होता । बल के सहायता से जो अन्तर्यत्न (चेष्टा, प्रयत्न, कृति आदि) किया जाता है, उसे प्राण कहते हैं । जहाँ से प्राण का रश्मि निर्गत होता है, उसे मन कहते हैं । मन ही इच्छा का जनक है । इच्छा के द्वारा प्राणव्यापार होता है । प्राण के द्वारा वाक् (समस्त विषय जो नाम-रूप-कर्म के द्वारा निर्देशित होते हैं) व्यापार होता है (न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धं इव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ॥ वाक्यपदीयम् १-१३१ ॥) ।
इन्द्रियों के अधिष्ठाता प्रज्ञान चन्द्रमा (मन) भोगसाधन है । प्राण के आधारपर रहनेवाला विज्ञान सूर्य (बुद्धि) वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ (अहङ्कार) रूपमें परिणत होकर भोक्ता वनता है (प्रश्नोपनिषत् १/१/६-७) । अहंभावका आग्नेयअंश जो नित्यप्रति उत्पन्न नूतन भूतोंको सुरक्षित करता है, उसे वैश्वानर कहते हैं । जो वायव्यअंश नित्यप्रति गतिद्वारा नूतन वस्तु उत्पन्न करता है, उसे तैजस कहते हैं । इन्द्रका जो आदित्यअंश विषयजात वस्तुका अनुभव करता है, उसे प्राज्ञ कहते हैं । इन तीनोंमें अहंभाव (मैं पना) वनारहता हैं। अतः इन्हे अहङ्कार कहते हैं । जैसे एक अङ्कुर अथवा पुरुष जन्म होते ही उसका छाया स्वयमेव आ जाता है, उसीप्रकार आत्माके साथसाथ प्राण स्वयमेव आ जाता है । वह प्राण मनके द्वारा शरीरमें आता है (आत्मन एष प्राणो जायते। यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्छरीरे – प्रश्नोपनिषत् १/३/३)।
जो पृथक् से स्पष्ट जाना जाये, उसे निरुक्त कहते हैं । अन्यथा उसे अनिरुक्त कहा जाता है । जिस अवस्था में जगत् ब्रह्म से पृथक् नहीं जाना जाता, वह ब्रह्म की उन्मूग्ध अवस्था है । उस स्थिति में ब्रह्म अव्याकृत और निर्विकल्प कहा जाता है । अपरिणामी ब्रह्म से ही परिणामिनी सत्ता, चेतना आदि रूप व्यक्त होते हैं । यही “एकोऽहं वहुस्याम” श्रुति वाक्य का अर्थ है । नभ्य एवं सर्व भेद से अनिरुक्त द्विधा विभक्त है । केन्द्रशक्ति नभ्य है, जो अणिमा (क्षुद्रातिक्षुद्र) है । यही प्रतिष्ठा है । ऋग-यजुः-साम में से अन्तिम साम ही सर्व है, जो भुमा (सर्वव्यापी) है । उसके विषय में सब कुछ कहना सम्भव नहीं है, कारण वह अनन्त है । परन्तु अवयवशः (खण्ड खण्ड कर – by digitizing the analog), उसकी आपेक्षिक निरुक्ति की जा सकती है । उनके मध्य में जितने रूप हैं, वह केन्द्रशक्ति से ही उदित होते हैं । अत्यधिक अन्यथा भाव को विवर्त कहते हैं । केन्द्रशक्ति सदा एकरूप होने पर भी विवर्त (evolution) उत्पन्न करती है । यह अनिरुक्त होने पर भी अवतार अथवा विकासके कारण ज्ञेयहोता है । केन्द्रशक्तिका अपनेही शक्तिसे (विना किसी अन्य शक्तिसंयोगके) व्यक्तिकरण अवतार (incarnation) है । उसका अन्य अनेक प्रकारके संसर्गसे (अन्य शक्ति संयोग से) व्यक्तिकरण विकास (transformation) है । अनिरुक्त से ही निरुक्त वनता है (असतः सदजायत – ऋक् १०/७२/२) । परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान निरुक्त का प्रथम होता है । उससे अनिरुक्तका अनुमान किया जाता है ।
हमारा हस्त सदैव एक जैसा स्थिर रहता है । हम किसी वस्तु को लाने का इच्छा करते हैं । प्राणके अन्तर्व्यापार के बिना वाक् (भूत) के वहिर्व्यापार सम्भव नहीं है । इच्छा के अनन्तर प्राणके द्वारा हस्त में क्रिया आरम्भ हो जाती है । क्रिया सम्पन्न होने के पश्चात् हस्त पुनः स्थिर हो जाता है (उसीप्रकार ब्रह्ममें कर्म देखाजाता है । परन्तु वास्तव में ब्रह्म अविकारी रहता है) । प्राणका शक्ति त्रिविध है । देवता रूप से वही प्राणशक्ति कर्तृत्व दिखाता है । इन्द्रियरूपसे करण वनता है तथा कार्यरूपसे भूत वनता है । प्राण ही भूतका प्रतिष्ठा है । अतः भूत प्राण व्यतिरेके क्षणभर भी रह नहीं सकता । प्रवर्ग्य (प्रवृक्तवस्तु – निक्षिप्त, वर्जित वस्तु – वृजीँ वर्ज॑ने) निरात्मक होता है । उसे पशु कहते हैं (observables – यत् अपश्यत् तत् पशवः) । वही अन्य का अन्न (भोग्य) होता है । यह परप्रतिष्ठामें प्रतिष्ठित रहता है । अतः परतन्त्र हो कर वायु के द्वारा विचरण करता है (acceleration due to gravity – वायुप्रणेत्रा वै पशवः । प्राणो वै वायुः । प्राणेन ही पशवः चरन्ति) । पशु पञ्चविध होते हैं – छन्द, पोष, अन्न (वीर्य), सलिल (शरीर), अग्नि (छन्दांसि पोषा अन्नानि सलिलान्यग्नयः क्रमात् । पञ्चैते पशवो नित्यं प्राणेष्वेते प्रतिष्ठिताः) ।
भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला (प्राणियोंका उद्भव करनेवाला) जो विसर्ग (त्याग) है उसको कर्म कहा जाता है (भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ।। गीता ८-३।।) । महाप्रलयके समय अहङ्कार तथा सञ्चित कर्मोंके सहित जगत् प्रकृतिमें लीन हो जाता हैं एवं प्रकृति परमात्मामें लीन हो जाती है । उस लीन हुई प्रकृतिको पुनः क्रियाशील करने केलिए परम्ब्रह्मका सङ्कल्प ही प्रथम विसर्ग है । यहींसे कर्मोंका आरम्भ हो जाता है और उससे ही जगत् का कर्मपरम्परा चल पड़ता है । रस और बल दोनों एक ही शक्ति के अन्तर्निहित धर्म है । बलोपेत रस धर्मी है । यह दोनों धर्म अयुतसिद्ध है । एक अपरिमित (अपरिच्छिन्न) वस्तुका एक मित (परिच्छिन्न) वस्तुके साथ निरूढ (लक्षणा द्वारा अर्थप्रतिपादिक) मात्रामें सङ्क्रमण करना (एकत्र होना) संसर्ग (interaction) है । संसर्गज कर्म दो प्रकार के होते हैं – १) कर्म में कर्म (interaction between forces) और २) अकर्म में (स्थिर वस्तु में) कर्म (interaction between a charged body with a charge neutral body) । बल से बल का चिति (confinement) से विश्वसञ्चार होता है ।
अखण्डरसमेतावदेतद् भेदननैपुणा ।
स्वतन्त्ररूपा त्वं देवी माया भैरववल्लभा ॥
भेदनेन स्वरूपस्य गोपनात्तत्वरूपिणी ।
स्वरूपभेदनं हित्वा चैकावगमनोद्यता ॥
जब केवल निजस्वरूपमें अवस्थित सिसृक्षा (सर्जनेच्छा) रूप उपाधिविशिष्ट (जो किसीमें अन्वित हो कर यावत्कालस्थायी हो – जब तक एक रहता है, तब तक अन्य भी रहे – तो उसे विशेषण कहते हैं । इन दोनोंमें से एक रहनेसे, अन्य नहीं रहनेसे, उसे उपाधि कहते हैं । मुमूक्षा आनेपर सिसृक्षा नहीं रहती) परम्ब्रह्मका “बहुस्यां प्रजायेय” इति इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मिका शक्तियोंके योगसे अर्थ-शब्द सृष्टि (द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत्।) अङ्कुरछायावत् (जब अङ्कुर उत्पन्न होता है, उसका छाया भी साथ साथ उत्पन्न हो जाता है) युगपत् सृष्टि होता है । यह सृष्टि मायाबल के द्वारा ही सम्भव होता है, जो स्वरूपभेदन कर कर्म को जन्म देती है । कर्म दो प्रकार के होते हैं – एक कर्म में कर्म तथा अन्य अकर्म (ब्रह्म) में कर्म । इनका संसर्गभेद से अन्य अवान्तर कर्म का सृष्टि होता है ।
कर्म में कर्म का ५ प्रकार के संसर्गभेद है –
१) स्थानावरोध (exclusion principle) । जब दो अणुओं (fermions excluding leptons) का परष्पर संयोग होता है, तब वह एककाल में एकदेश में एकत्र रह नहीं सकते । कारण विष्टम्भकत्व (स्थानावरोध) पार्थिव वस्तुमात्र का धर्म है । विष्टम्भकत्व – आग्नेय पदार्थ (fermions excluding leptons) में विशेष प्रकार के प्रतिबन्ध को कहते हैं (ष्टभिँ॒ऽ प्रतिब॒न्धे, स्त॒म्भुँऽ रोध॑न॒ इत्येके॑) । किसी स्थान के आश्रयमें रहनेवाले अणुओं का अपसर्पण से ही अन्य अणुओं का प्रवेश । यदि वहाँ अणुओं के साथ कर्म का संयोग होता है, तो बन्ध (strong nuclear interaction), विभूति (weak interaction – beta decay only) तथा योग (electromagnetic interaction) नामक तीन स्वरूप सम्बन्ध होते हैं । इनको यथाक्रम अन्तर्याम सम्बन्ध (दोनों का स्वरूप नाश हो कर अपूर्व नुतन सृष्टि होना), वहिर्याम सम्बन्ध (एक का स्वरूप नाश), तथा उपयाम सम्बन्ध (दोनों का स्वरूप रहते अपूर्व नुतन सृष्टि होना) कहते हैं । यह केवल परिमाण्डल्य (quarks) अथवा उपायप्रत्यय (quantum) वस्तुओं का धर्म नहीं है । यह पृथ्वीतत्त्व का गुण है जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है । पृथ्वी पर अथवा घर के भित में शङ्कु गाडने के समय वहाँ के अणुओं का जितना अपसर्पण होता है, शङ्कु का उतनी परिमित स्थानमें प्रवेश होता है । यह स्थानावरोधका एक उदाहरण है ।
२) सामञ्जस्य (co-existence/superposition – bosonic principle) । सौम्यपदार्थों (leptons) का एक ही प्रदेशमें सहावस्थान । यहाँ दो तत्त्व एक देश-कालमें एक अपर का अपमर्दन किये विना पृथक् सत्तामें रह सकते हैं । समग्र विश्व अग्निषोमात्मक (a combination of fermions and bosons) है । अग्नि प्राण है । सोम रयि है (आदित्यो ह वै प्राणो रयिरेव चन्द्रमा । प्रश्नोपनिषत् १-५) । अग्नि सत्य (स+ती+यम् – छान्दोग्य) है । स्थितिसिद्ध (that which can be measured) सहृदय (having a three-fold structure like the nucleus – हृ – ह्वृ॒ सं॒वर॑णे, ह्वृ॒ कौटि॑ल्ये, ह्वे॒ञ् स्प॒र्धायां॒ वा – electron shells – द – दो॒ अव॒खण्ड॑ने – and intra-nucleic field यम् – य॒मँ उपर॒मे, यमँ(म्) परि॒वेष॑णे), सशरीरी (having fixed dimensions or structure. Dimension is related to the spread of a fixed body substance in mutually perpendicular directions that leave the form invariant under mutual transformation. It is not related to space. विस्तारस्य यथैवार्थ आयामेन प्रकाशितः । तथारोहसमुच्छ्रायौ पर्यायवाचिनौ मतौ । परिमाणानुसारेण व्यवहृति क्षितौ नराः । विश्वकर्माः ।) को सत्य कहते हैं । सोम (रयि) भातिसिद्ध (non-physical mental constructs like time, dimension, quantity, etc.), अहृदय (without internal structure), अशरीरी (without fixed dimension) है । इस रयि से ही सबकुछ बना है (रयिर्वा एतत्सर्वं यन्मूर्त्तं चाऽमूर्त्तं च । प्रश्नोपनिषत् १-५) । यह अप् तत्त्व का गुण है जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है । एक ही प्रदेशमें अनेक प्रकाश किरणों का सहावस्थान इसका लक्षण है । दर्पण और चक्षु का सीमित प्रदेश में अनेक प्रकाश किरणों का सहावस्थान से रूपदर्शन इसका एक उदाहरण है । अथवा एक ही बिन्दु पर विभिन्नबलों का सामञ्जस्य से उत्पन्न क्रियाशून्यता (स्थिति – स्थितस्य गतिः चिन्तनीया) भी इसका उदाहरण है । इसे अध्यास भी कहते हैं, जो मायाबल के कारण होता है ।
३) एकभाव्य (complementarity principle, but not wave-particle duality) । किसी वस्तुका स्वरूप एक प्रकारसे अथवा एक इन्द्रिय द्वारा जाना नहीं जा सकता (अनवर्णे इमे भूमी । इयं चाऽसौ च रोदसी । किग्गंस्विदत्रान्तरा भूतम् । येमेने विधृते उभे । … इरावती धेनुमती हि भूतम् – तैत्तिरीयारण्यकम्) । जब हम किसी वस्तुको देखते हैं, हम उसके द्वारा विकिरित रश्मि (wave – जो कम्प के द्वारा हमारे आँखों के संस्पर्शमें आता है – तिरश्चिनो विततो रश्मिरेषा – ऋग्वेदः १0-१२९-५) को देखते हैं – उस वस्तु पिण्डको (particle) नहीं, जो विकिरण सृष्टि करता है । जब हम उसी वस्तुपिण्डको छुते हैं, हम उसके द्वारा विकिरण को छुते नहीं हैं । कारण वस्तुपिण्ड दोनों के ३) एकभाव्य सम्बन्ध से वनता है, परन्तु हमारा इन्द्रिय किसी एक ही तत्त्व को ग्रहण कर सकता है । अतः दोनों इन्द्रियों द्वारा गृहीत तत्त्वों को मिलाना पडता है । तभी हमें वस्तु का ज्ञान होगा । परन्तु दोनों को मिलाने के लिए दोनों का लिङ्ग (basic charge) भिन्न होना चाहिए । दोनों आग्नेय (पुंलिङ्ग) मिलित होने से विष्फोटक (fission) होते हैं । दोनों सौम्य (स्त्रीलिङ्ग) मिलित होने से निरर्थक होते हैं (सामञ्जस्य) । स्त्री-पुरुष लिङ्ग का मिलन सम्पूर्ण होने से पुष्टिकर (isotopes) तथा आंशिक होने से सृष्टिकर (new atoms) होता है । जैसे दो उद्जान (hydrogen) स्थूलभूतों के साथ एक अम्लयान (oxygen) स्थूलभूत का आंशिकमिलन (complementarity) से जल सृष्टि होता है । दो अथवा अधिक भिन्न स्थूलभूतों के मिलन से तृतीय स्थूलभूत का निर्माण होता है । उसीप्रकार बीज, जल, मृत्तिका के मिश्रण से अङ्कुरोत्पत्ति होता है । यह एकभाव्य सम्बन्ध का उदाहरण है । यह आग्नेय तत्त्व का गुण है जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है ।
४) एकात्म (where both exist together as a natural consequence like air with different atoms) । सामञ्जस्य और एकात्म में एक अन्तर है कि सामञ्जस्यमें दोनों का पृथक् सत्ता रहता है, जब कि एकात्म में दोनों साथ मिलकर रहते हैं । एकभाव्य और एकात्म में एक अन्तर है कि एकभाव्यमें वस्तुओं का संयोग और वियोग यौगिक प्रक्रियामें होता है (in chemical reaction), जब कि एकात्म में वस्तुओं का संयोग और वियोग प्राकृतिक प्रक्रिया से होता है । यह वायुतत्त्व का गुण है जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है । वर्ण आरोपण (color charge) केवल सृष्टिके प्राथमिक अवस्था एवं मूल पदार्थों के क्षेत्र में प्रयुक्त होता है । अन्यत्र एकभाव्य सम्बन्ध ही रहता है । उसमें दो वस्तुओं का संसर्ग केवल यौगिक प्रक्रिया से ही सम्भव है (chemical process like oxygen and hydrogen combining through a transition state to form water or water converted to hydrogen and oxygen through electrolysis) । दो प्रकार के परिमाण्डल्योंका (quarks) असमान परिमाणमें (अग्निर्जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः – ऋग्वेदः ५-४४-१५) मिलकर त्राणुक (प्रोटोन एवं निउट्रन – proton and neutron) बनना भी इसी प्रक्रियाके अन्तर्गत आता है । परिमाण्डल्य से त्राणुक वनना तथा वर्णगतिविद्या (strong interaction including color charges of QCD and molecular bonding) इसी के उदाहरण है । मजोराना पिण्ड (Majorana particle or Angel particle) भी इसी सम्बन्ध से वनते हैं । (Color charge plays two roles in the standard model: as the 3-valued charge that labels states of quarks, antiquarks, gluons and their composites, and as the source of the strong force between quarks and antiquarks mediated by gluons) ।
५) भक्ति (उभाभ्यां भज्यत इति भक्तिः – सादृश्य से होनेवाले व्यवहार – translation of motion like energy moving objects in space) । यहाँ पर एक का विना क्रिया के अन्य प्रदेश में उपसंक्रमण होता है । जैसे स्थिर आकाशमें वायु का गति अन्य वस्तुओं को उडा कर ले जाता हुआ दिखता है । विमानयात्री विमानमें स्थिर रहते हुए भी एक स्थान से अन्य स्थान पर चले जाते हैं । वायु तथा विमान का गति उनमें उपसंक्रमण कर जाता है । भगवानका गुण भक्तमें उपसंक्रमण कर जाता है । यह आकाशतत्त्व का गुण है, जो सब में उपसंक्रमण कर जाता है ।
स्वायम्भूवा लोकपितामहेन उत्पादकत्वात् रजसोऽतिरेकात् ।
कालस्य योगात् नियमाबद्धेन क्षेत्रज्ञयुक्तान् कुरुते विकारान् ॥
ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु एक अन्य का सापेक्ष (relative) है (इयं पृथिवी सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यैसर्वाणि भूतानि मधु …. मधुब्राह्मण । everything is interconnected and interdependent) । कार्य-कारण सम्बन्ध अनादि है । प्रत्येक कार्य का कारण भिन्न है । परन्तु इन वैचित्र्य के मध्यमें एक विश्ववृत्तित्व (universal principles – fundamental laws of Nature) भी देखा जाता है । प्रत्येक कार्य का परिणाम एक निर्द्दष्ट नियमसे बद्ध है (laws of physics are same in all frames of reference) । इससे प्रमाणित हो रहा है कि सृष्टिके आरम्भ में किसी एक (Singularity) तत्त्वसे सारे वैचित्र्य सृष्ट हुए हैं । उससमय साधारण जीवों का अभाव रहने से उस अवस्था का वर्णन करना असम्भव है (यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह , न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते, आदि) । ऋषियो ने अपने ज्ञानके द्वारा सत् (भाव) से विलक्षण उस असत् (अभाव) तत्त्वका अन्वेषण किया (सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा – it can only be inferred from the presently available information by regressing backwards).
रस अकर्मक है । पूर्ण रसमें अपूर्ण बल सर्वतः तादात्म्य रूप से सम्बन्ध करता है । यह तादात्म्य सम्बन्ध (coexistence) से सृष्टि सम्भव नहीं है । दोनों स्वतन्त्र और परष्पर असङ्ग है । दोनों ही शाश्वत है । अतः इनका सम्बन्ध भी विशिष्ट रूपसे शाश्वत है । उनके सम्बन्धमें स्थानावरोध नहीं है । इसमें मात्रानियम भी नहीं है । जब बल सखण्ड हो कर – स्वयं परिच्छिन्न हो कर, अपने सम्बन्ध से अपरिच्छिन्न रस को परिच्छिन्न जैसा प्रतीत कराता है, तब समुद्रजल में तरङ्ग अथवा स्रोत जैसे रस भी परिच्छिन्न प्रतीत होता है । उस परिच्छिन्न – मित (मापने योग्य) भाग (अकर्म) में जब अन्य बल का सम्बन्ध होता है, तब अग्निषोमरूपी स्त्री-पुरुष भाव होता है (positive and negative charges), जिससे सृष्टि सम्भव होता है (चंद्रार्कमध्यमा शक्तिर्यत्रस्था तत्र बन्धनम्) ।
अमित रस को मित जैसा परिच्छिन्न करने के लिए मायाबल के द्वारा भेद सृष्टि कर सर्वप्रथम योषा-वृषा अथवा रयि-प्राण रूपी लिङ्ग सृष्टि किया जाता है (प्रजाकामो वै प्रजापतिः स तपोऽतप्यत, स तपस्तप्त्वा मिथुनमुत्पादयते, रयिश्च प्राणश्चेति. एतौ मे वहुधा प्रजाः करिष्यत इति प्रश्न – १-४ । अन्यत्र च – द्विधा कृतात्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत । अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभु – मनु) । यह स्त्री-पुरुषों का वह अवयव है, जो सृष्टि के उपादान कारण है । यदि योषा सर्वात्मना वृषा के गर्भमें प्रवेश करें, तो अन्न-अन्नाद भाव का सृष्टि होता है । इस सम्बन्धसे सृष्टि नहीं होता । केवल अवयव सम्बन्धसे ही सृष्टि होता है । सोम में रहनेवाला सोमका आधारभूत प्राणविशेष ही पितर है । पिण्डरूपमें परिणत चान्द्रसोम सौरप्रकाशमें प्रकाशित हो कर भास्वर सोम होता है । अन्य ऋतरूप दिक् सोम अन्तरिक्षमें सर्वत्र व्याप्त है । अतः लिङ्ग (charge) दो प्रकारका होता है, जिसे आधुनिक विज्ञानमें वर्णशक्ति आरोपण (color charge of QCD), तथा वैद्युतिकशक्ति आरोपण (electric charge) कहते हैं ।
यह वर्णशक्ति आरोपण (color charge) का सिद्धान्त क्या है ? अणु (atom) का गठन दो पदार्थों का समन्वय से हुआ है – नभ्यस्थ (nucleons, which are also called baryons, जो भावप्रत्यय – directly perceptible – नहीं होते, परन्तु उपायप्रत्यय – indirectly inferred होते हैं), और सर्वस्थ (leptons) । नभ्यस्थ (nucleons) दो प्रकार के होते हैं – देवाः (protons) और असुराः (neutrons), जो उपायप्रत्यय हैं । इन दोनों नभ्यस्थ कणों को जब भग्न किया गया, तो बहुत सारे पदार्थ मिले जिसे वर्गीकरण करने के लिए बौद्धधर्म का अष्टांग मार्ग पद्धति (eight-fold way) अपनाया गया । अन्त में पता चला कि नभ्यस्थ (nucleons) वस्तुओंका गठन कुछ भग्नांश लिङ्ग (fractional charge) वाले पदार्थ से हुआ है, जिसे परिमाण्डल्य (quark) कहा जाने लगा । यह परिमाण्डल्य अनिरुक्त है – जिसे सामान्य अवस्था में अलग से जाना नहीं जा सकता, तथा अणिमा है – जिससे सूक्ष्मतम कुछ हो नहीं सकता । इसलिए इसे बद्ध (permanently confined) कहते हैं । जो परिवारभूत परिग्रह है (develops into a family), उसे निरुक्त कहते हैं । इनका अपर भाग प्रकृतिलयाः (not separately perceptible or perpetually confined) है । अनिरुक्त-प्रकृतिलयाः से ही महिमायुक्त -निरुक्त का उत्पत्ति होता है । इसके स्थान (पृथ्वी, अन्तरीक्ष, द्यौ) भेद से तीन विभाग है, जो वसु-रुद्र-आदित्य से सम्बन्धित है । आधुनिक विज्ञानमें इन तीनोंको लिङ्गशक्ति (सामर्थ्य सर्वभावानां – charge) के भेद से up/down, charm/strange, top/bottom quark family कहाजाता है ।
आधुनिकविज्ञानमें इन परिमाण्डल्योंका लिङ्गशक्ति (charge) +२/३ और -१/३ मानाजाता है । परन्तु वैदिकविज्ञानमें इनका लिङ्गशक्ति (+)७/११ और (-) ४/११ मानाजाता है । व्यावहारिक प्रयोगमें वैदिकविज्ञान ही सठीक प्रमाणित होता है । परन्तु आधुनिक विज्ञानमें इसके सम्बन्धित परीक्षण को गुप्त रखा जाता है तथा दवाया जाता है । न्युट्रन के लिङ्गशक्ति को शून्य प्रमाणित करने के लिए यह मिथ्याप्रयास किया जा रहा है । परन्तु न्युट्रन का लिङ्गशक्ति शून्य नहीं है । यह प्रमाणित होनेपर आधुनिक विज्ञानके बहुतसारे सिद्धान्त (जैसे binding energy, exchange force) भूल प्रमाणित हो जायेंगे । इसीलिए ऐसा मिथ्याप्रयास किया जा रहा है । इस विषय पर कोई भी वैज्ञानिक अनेक प्रयास के पश्चात् भी आजतक वैदिक मत को भूल प्रमाणित नहीं कर सकें हैं ।
सर्वस्थ प्रकृतिलयाः है । यह भूमा है – समुद्र जैसे सर्वव्याप्त है । इसके भी स्थानभेद से तीन विभाग है, जिसे समुद्रअर्णव-नभस्वान-सरस्वान कहा जाता है । आधुनिक विज्ञानमें इन तीनोंको electron-muon-tau कहते हैं । यहाँ Electron केलिए समुद्रअर्णव (electron sea) शब्दका व्यवहार कियाजाता है । वर्णशक्ति आरोपण (color charge) को जानने के लिए वैदिकविज्ञान के शरणमें जाना पडेगा । आधुनिक विज्ञानमें लोहित-सबुज-नील (red-green-blue) नामक तीन वर्णशक्ति आरोपण (color charge) कहा जाता है, जो सर्वथा अवैज्ञानिक यदृच्छा नामकरण है ।
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः।। (श्वेताश्वेतर उपनिषत् ४-५)
लोहित-शुक्ल-कृष्ण वर्णा तीनवर्णों से युक्त एक अजा (अजन्मा – eternal) प्रकृति (Nature) रज-सत्त्व-तम तीनों गुणों का साम्यावस्था (singularity) है । यह अजा (that which is not created – eternal) प्रकृति, एका (without similars) है । इस अजा का सेवन करता हुआ – शुक्ल-लोहित-कृष्णवर्णा अजा का अनुसरण करता हुआ – कोई अज – अजन्मापुरुष (Consciousness, which includes information) – उसमें अपना प्रयोजन सिद्धकर (जोषयति, जोषत्यन्यगुणं – जोषते सेवते – जुषीँ॒ प्रीतिसेव॒नयोः॑ – अथवा जुषँ परि॒तर्क॑ने, परि॒तर्प॑ण॒ इत्य॒न्ये) वहाँ से आगे बढजाता है (जहाति ओँहा॒ङ् गतौ॑) अथवा उसको त्याग (ओँहा॒क् त्या॒गे) देता है । इस त्रिगुणवती एका अजा ने अनेक सरूप (रूपयुक्त – with form, perceptible) प्रजा – सन्तान (अवयव-अवयवी-प्रवाह – creation) – उत्पन्न किए है (महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्चतन्मात्र, षोड़श विकार ही अजा रूपी प्रकृति के सन्तानें हैं) । ये सब सन्तानें सत्त्व-रज-तममय प्रकाश-प्रवृत्ति-नियम गुण वाले हैं (having characteristics of information, energy and mass respectively) । इनमें सत्त्व लघु एवं प्रकाशक है । रज उपष्टम्भक (अबरोधक – ष्टभिँ॒ऽ प्रतिब॒न्धे, स्त॒म्भुँऽ रोध॑न॒) एवं चल है । तम गुरु एवं आवरक है । प्रकृति के त्रिगुण ही सबके कारण है । गुणसाम्य को प्रकृति कहते हैं (कारणानां गुणानां तु साम्यं प्रकृतिरुच्यते) । यह गुण अपने कार्य को सम्पन्न करने के लिए परस्पर में –
• अपने से इतर दो गुणों को अभिभूत कर (ढक) देते हैं (अन्योऽन्याभिभाववृत्तिः) ।
• अपने से इतर दो गुणों का आश्रय लेते हैं (अन्योऽन्याश्रयवृत्तिः) ।
• अपने से इतर दो गुणों को निर्बल बनाकर ही अपने कार्य जनन कर पाते हैं (अन्योऽन्यजननवृत्तिः) ।
• अपने से इतर दो गुणों के साथ मिलकर ही अपने कार्य जनन कर पाते हैं (अन्योऽन्यमिथुनवृत्तिः) ।
इन तत्त्वों को लोहित-शुक्ल-कृष्ण वर्णा क्यों कहा गया तथा इस क्रमसे क्यों रखागया ? रजोगुण को ही लोहित कहा गया है, कारण सृष्टिमें रज ही प्रवर्तक होने से आदि है । यहीं से सृष्टिप्रक्रिया का आरोहण – आरम्भ होने से यह लोहित है (रुह्यते इति रुः॒अँ बीजज॒न्मनि॑ प्रादुर्भा॒वे च॑, रुहेरश्च लो वा – उणादि ३-९४, रस्य लत्वम्) । आवरण के हट जाने से शुद्ध सत्त्वगुण का उदय होता है, जिसे दर्शनशुद्धता के कारण (ईँशुचिँ॑र् पूतीभा॒वे) शुक्ल कहते हैं । तमगुण सबको आवरित कर देने के कारण प्रकाशावरण अन्धकार को जन्मदेता है, जो कृष्णवर्ण होता है ।
पुरुषसूक्त के मत में पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि । निर्गुण, निर्विशेष ब्रह्म से लेकर केवल शक्तियों के विकाश के जो सीमा है, वह गूढोत्मा नाम से ब्रह्म का प्रथम एकपाद है । सृष्टि हो कर भी, जिसमें इन्द्रियग्रहण योग्यता नहीं होती, वह ब्रह्म का द्वितीयपाद है । आगे चलकर इन्हीं का स्थूलरूप प्रज्ञा और प्राण वनते हैं । शरीर में प्रज्ञा के द्वारा ज्ञान तथा प्राण के द्वारा क्रिया सर्वदा सञ्चालित होते रहते हैं । यह शक्तियों का ही विजृम्भण है (विकसन), कारण विना आधार के शक्तियाँ नहीं रह सकती । उस समय द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति – गूढोत्मा तथा आवरण – यही दो होते हैं । यह सूक्ष्मभाग शेप (गुप्तस्थान) जैसे वेष्टित (आवरित) रहता है । इसीलिये उसे शिपिविष्ट कहते हैं । शक्तियों का भूतों का सम्मिश्रणसे त्रिवृत्करण रूपी यज्ञ ब्रह्म का तृतीयपाद है । स्थूलता आ जाने पर वर्तमानस्थिति रूप विराट् ब्रह्म का चतुर्थपाद है (चतुष्टयं वा ईदं सर्वम्) ।
ब्रह्म ह वा इदमग्र असीत् स्ययंभ्वेकमेव । ….. तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य संतप्तस्य ललाटे स्नेहो यदार्द्रमाजायत । तेनानन्दत्तद्ब्रवीन्महद्वै यक्षं सुवेदमविदामह इति । तद्यदब्रवीन्महद्वै यक्षं सुवेदमविदामह इति तस्मात्सुवेदो ऽभवत्तं वा एतं सुवेदं सन्तं स्वेदइत्याचक्षते परोक्षेण … । गोपथब्राह्मणम् ।
उस स्ययम्भू ब्रह्मने जब सृष्टिकाम हुआ, तो क्रिया की उत्पत्ति हुई । क्रियासे ताप सृष्टि हुआ । अग्नेरापः नियमसे उसमें विकार हो कर द्रवित चितेनिधेय भाग (महिमामण्डल) चित्यपिण्ड (मूलपिण्ड) से भिन्न प्रतीत हुआ । वह ब्रह्म का स्वेद जैसा प्रतीत हुआ, जिसे स्वेदब्रह्म अथवा सुब्रह्म कहागया । सर्वव्यापी होने से उसका उसीमें आहुति हुआ । संस्त्यान (confinement) करने के कारण सुब्रह्म स्त्री लिङ्ग है । प्रसव (confined) के कारण ब्रह्म पुंलिङ्ग है । इसी स्त्री-पुरुष भाव से मैथुनि सृष्टि (creation due to charge or chemical reaction) होती है । वर्ण आरोपण (color charge) से केवल भाव और गुण (perceptibility and basic characteristics) सृष्टि होती है । उनमें अन्न-अन्नाद भाव होता है । जब योषा-वृषामें अशनाया वृत्ति (भोजनेच्छा) का उदय होता है, तब स्त्री-पुरुष भावका उदय होता है । सुब्रह्म का ब्रह्म के साथ संसर्ग सर्वात्मना नहीं – अबयव सम्बन्ध है । योषा-वृषा का सृष्टिप्रवर्तक अवयवको रेत-योनि कहते हैं । आग्नेयभाग योनि है । सौम्यभाग रेत है । रेत सुब्रह्म नामक योषा का अंश है । योनि द्विब्रह्म नामक वृषा का अंश है । सुब्रह्म का ब्रह्ममें आहुति होता है । स्त्री-रूप सुब्रह्म पुरुषमें प्रतिष्ठित होता है । पुरुषरूप ब्रह्म स्त्री में प्रतिष्ठित होता है । जो वास्तविक स्थिति है, वह दिखता नहीं है (पुरुष आग्नेय, परन्तु रेत सौम्य है । स्त्री सौम्या, परन्तु उसका शोणित आग्नेय है) । अतः परोक्षप्रिया इव ही देवा भवन्ति प्रत्यक्षद्विषः । जिस प्रदेश अवधि माया का व्याप्ति है, उस अवधि पर्यन्त ब्रह्म-सुब्रह्म का व्याप्ति है ।
संस्त्यानप्रसवौ लिङ्गमास्थेयौ स्वकृतान्ततः ।
तदुपव्यञ्जना जातिर्गुणावस्था गुणास्तथा । ,,,
प्रवृत्तिरेकरूपत्वं साम्यं वा स्थितिरुच्यते ।
आविर्भावतिरोभाव प्रवृत्या वावतिष्ठते ।…
उत्पत्तिः प्रसवोऽन्येषां नाशः संस्त्यानमित्यपि ।
आत्मरूपं तु भावानां स्थितिरित्यपदिश्यते ।…
यह लिङ्ग का उत्पत्ति का वर्णन है (theory of generation of electric charge) । प्राण (energy) स्वतन्त्र है । वही सबका जनयिता है । जब वह संस्त्यान (बन्धन – confinement) हो जाता है, तो परतन्त्र हो कर पशु (यदपश्यत तत् पशवः – observables) बन जाता है । यही उसका आविर्भाव-तिरोभाव भी है । इसी से उसका जाति और गुण भी निर्द्धारित होते हैं । प्रसव उत्पत्ति है । संस्त्यान उसको मृत्युमुखी कराता है । मृत्यु और अमृत साथ साथ ही रहते हैं (अन्तरं मृत्योरमृतं, मृत्यावमृतमाहितम् – शतपथ ब्राह्मण, १०/५/२/४) । रस रूप स्थायी अथवा अमृत है । उससे उत्पन्न सृष्टि क्षणिक अथवा मृत्यु है । अमृत रस के समुद्र से मुक्त होने के कारण वह मुच्यु है जिसे परोक्ष में मृत्यु कहा गया है (स समुद्रादमुच्यत स मृत्युंरभवत्तं वा एतं मुच्युं सन्तं मृत्युरित्याचक्षते – गोपथ ब्राह्मणम्, पूर्व, १/७) । सभी सृष्ट पदार्थ क्षर या मृत्यु हैं, उनका मूल स्रोत और प्रतिष्ठा अमृत है । ब्रह्म अमृततत्त्व एक है । विश्व मृत्युतत्त्व नानात्वयुक्त है । नानात्व मृत्युनिबन्धन है । नानात्वदृष्टि मृत्युपाशमें बद्ध दृष्टि है । एकत्वदृष्टि अमृततत्त्वदृष्टि है ।
भेद मायिक है – कल्पित है । अभेद सत्य है । स्वरूप आविर्भावक आधारके भिन्नता से भेदसृष्टि होता है । आधार के अभाव से भेद का अभाव है । मूलतः अभेद सर्वत्र है । बल भी मूलरूप से सर्वत्र तथा एक है । केवल उसके प्रकाशक आधार के भिन्नता के कारण एक ही बल नाना रूप से प्रतिभात होता है । आधार रस का कार्य है । बलगर्भित रस आधारमें परिणत होता है । यही आधुनिक विज्ञान का हिग क्षेत्र (higg’s field) का सिद्धान्त है । अमृतके आधारमें वही एक बल चतुष्टयं वा इदं सर्वम् (शाङ्ख्यायन ब्राह्मणम्) सिद्धान्तके अनुसार परत्वापरत्व सम्बन्धसे अन्तर्यामादि चतुष्टय रूपमें परिणत होता है । यही चतुष्टय अमृतं-मृत्युञ्च (यजुर्वेद) न्यायसे एकजं षळिद्जमा (ऋग्वेदः १-१६४-१५) हो कर प्रवहादि सप्त वातस्कन्दमें परिणत होता है । उसका मर्त्यभाग स्वायम्भूवादि पञ्चपुर के सम्बन्धसे प्रभ्राजमानादि ११ वायुमें परिणत होता है । यही १२२ प्रकार के कार्यरूपमें परिणत होते हैं ।
कर्त्तृत्वं तत्र धर्मी कलयति जगतां पञ्चसृष्ट्यादि कृत्ये ।
धर्मः पुंरूपमाद्यात् सकलजगदुपादानभावं विभर्ति ।
स्त्रीरूपं प्राप्य दिव्या भवति च महिषी स्वाश्रयस्यादिकर्तृः ।
प्रोक्तौ धर्मप्रभेदावपि निगमविदां धर्म्मिवद् ब्रह्मकोटी ।
भावपदार्थ ३ प्रकार के होते हैं – द्रव्य (matter), क्रिया (effect of energy on matter) तथा शक्ति (information – सा पूर्वोदिता सिसृक्षा स्वस्वरूपाभेदमयानहमित्येव पश्यति) । उनमें से क्रिया के द्वारा द्रव्य परिणत होता है । अतः क्रिया परिणामका निमित्तकारण है । जिसे हम सत्त्व अथवा द्रव्य कहते हैं, वह क्रियामूलक होनेपर भी, “जिसका क्रिया” – ऐसे एक सत्त्व अथवा प्रकाश (information) है – यह मानना पडेगा । वही सत्त्व ही मूलद्रव्य है । काठिन्यादि गुण अलक्ष्यक्रिया है । परिणाम – अवस्थान्तरप्रापक क्रिया – लक्ष्य अथवा स्फुटक्रिया है । स्फुटक्रिया ही निमित्त है । अलक्ष्यक्रियाजनित प्रकाश अथवा स्थिरसत्तारूपमें प्रतीयमान द्रव्य नैमित्तिक है । निमित्तक्रिया के द्वारा नैमित्तिकका परिणति होना ही द्रव्यके परिणाम का स्वरूप है । शक्ति अवस्थासे पुनः शक्ति अवस्थामें परिणत होना निमित्तक्रियाका स्वरूप है ।
दृश्य स्थूलक्रियासकल क्षणावच्छिन्न (temporal) सूक्ष्मक्रियाका (quantum processes) समाहारज्ञान है । रूपरसादि भी उसीप्रकार है । आलोकके द्वारा रूप प्रतिक्षण उसीरूपसे पुनःपुनः अवभासित होता है । आलोक नहीं रहनेसे रूप का अभाव नहीं होता – दृश्यता का अभाव होता है । कारण तमावरणसे रूपत्व अभिभूत होता है । अतएव घटपटादि वस्तु अलातचक्र जैसे वहुसङ्ख्यक क्षणिकक्रियाजनित समाहारज्ञान मात्र है । कहागया है –
नित्यदा ह्यङ्गभूतानि भवन्ति च भवन्ति च ।
कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते ।
शक्ति से क्रियारूप निमित्त, क्रियारूप निमित्तसे ज्ञान (प्रकाशभाव), प्रकाशभावसे पुनः शक्तित्वमें प्रत्यागमन – इसी परिणामप्रवाह ही वाह्य जगत् का मूल अवस्था है । परिणामज्ञान क्रिया का ज्ञान अथवा प्रकाशित भाव (bio-photons) है । हमारे मनमें शक्तिभावमें स्थितसंस्कारके साथ प्रकाश (बुद्धि) का योग होने से वह स्मृतिरूप भाव (द्रव्य अथवा सत्त्व) होता है । इसी शक्तिका क्रियारूपमें प्रकाश्य होने को परिणाम कहते हैं । उसका ईयता नहीं हो सकता । अतः परिणाम असंख्य है । वाह्यजगत् में जो क्षणिकपरिणाम है, उसे स्तोके स्तोके (gradually slowly) ग्रहण करना लौकिक करणों का स्वभाव है । वही स्तोके स्तोके ग्रहण ही द्रव्यज्ञान है । लौकिक निमित्तजात परिणाममें निमित्तका भी स्तोके स्तोके ग्रहण होता है तथा नैमित्तिकका भी स्तोके स्तोके ग्रहण होता है । हम जिसे ग्रहण कियाहुआ मानते हैं, वह अतीत है । जो कर रहे हैं, वह वर्तमान है । जो करना सम्भव है, वह अनागत (भविष्यत) है । जय जगन्नाथ ...

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