प्रथम भाव
उसमें काल पुरुख की मेष राशि यानी एरीज जोडिएक पड़ता है और जिसका के स्वामित्व हम मंगल गृह को मानते हैं , वह मंगल फिर अष्टम भाव का भी स्वामी मन जाता है क्यों की उसकी दूसरी राशि वृश्चिक वहां पड़ती है और दोनों राशियों का अपना अलग प्रभाव मन जाएगा , तो हम बात कर रहे थे पहले भाव की की वहां मेष राशी जिसका स्वामी मंगल को माना जाता है व रुधिर जिसे हम खून भी कहते है का शरीर में प्रतिनिधितव करता करता है और मंगल को हम उत्साह व उर्जा का कारक भी मानते हैं दुसरे वहां पर सूर्य उच्च का मन जाता है वह भी उर्जा का प्रकार मन जाता है तो दोनों मंगल और सूर्य उर्जा के कारक होने के साथ साथ अग्नि के कारक भी है इसलिए ये जीवन के संचालक गृह प्रथम भाव के कारक बनाये गए जो की पूरण तया तर्कसंगत मन जाएगा , अब मेडिकल साइंस के मुताविक भी इनका यही मतलव निकलता है क्यों को विज्ञान भी यही मानता आया है की ये सारा ब्रह्माण्ड एक उर्जा के आधीन है और प्रमाणित व प्रतक्ष रूप से सूर्य तो इसका प्रमाण है ही , अब विचारनिए बात यह है की जीवन जीने के लिए वो भी सही जीवन जीने के लिए हमें इस उर्जा का सही समन्वय करना पड़ता है नहीं तो हम कहीं न कहीं पिछड़ना शुरू हो जाते हैं सो हमें उर्जा का नेगेटिव या पॉजिटिव प्रयोग करना आना चाहिए , अपनी अपनी पर्सनल होरोस्कोप में देखने पर इन दोनों उर्जा युक्त ग्रहों का किस प्रकार से बैठे हैं , किन किन नक्षत्रों में , उप नक्षत्रों में और आगे उप उप नक्षत्रों में, नव्मंषा कुंडली में, षोडस वर्गों में, अष्टक वर्गों में , पराशर शास्त्र अनुसार की प्लेनेट और न जाने और कितनी विधियों अनुसार देखने के वाद ही ये पता चलता है के वे गृह कितने बलवान हैं , मात्र एक आधी विधि अपूरण मानी जाती गयी है , और विचारनिए बात ये भी है के आज के वक्त में इस पवित्र शास्त्र का मज़ाक बना कर रख दिया गया है मात्र सिर्फ भौतिकता के चलते ऐसा हो रहा है , क्यों के हर आदमी दो चार किताबें पढ़ कर अपने आप को ज्ञानी मानने लगता है और आज जब सब कुछ कोमर्शिअल यानी व्यावसायिक सोच सब पर हावी हो चुकी है तो हर चीज की सैंक्टिटी यानी पवित्रता ख़तम हो रही है , जब स्वार्थ हावी हो जाए तो अक्ल पर पर्दा पड़ना शुरू हो जाता है, तो हम यहाँ देखते हैं के इन दोनों ऊर्जायों का हम कैसे सही इस्तेमाल करते हैं और जैसे के अगर कहीं न कहीं कोई ग्रहों में कमी पूर्व जनित कर्मो के कारण आ गयी हो तो हम उसमे काफी हद तक सुधार भी ला सकते हैं , हालांकि वह सुधार अपनी अपनी बिल्पावेर यानि इच्छा शक्ति , करम और प्रभु पर पूरण भरोसा इसी के चलते पूरण हो पाती है

कुटुम्भ व धन भाव
बात करते हैं दुसरे भाव की यानि कुटुम्भ व धन भाव की तो वहां का स्वामित्व शुक्र व् चन्द्र को दिया है और कारक गुरु को माना गया है , एशिया क्यों इसलिए की शुक्र भौतिक गृह है और भौतिक सुखों को प्राप्त करने के लिए धन की ज़रुरत पड़ती ही है , विचारनिए बात यहाँ ये भी है के गुरु को दुसरे, पांचवे , नवं और एकादस का कारक भी माना गया है क्यों की सब असली निधियों का स्वामी गुरु ही होता है जो के किसी के साथ कभी पक्षपात नहीं करता और अगर ये ही अधिकार दुसरे गृह को दिया गया होता तो व ज़रूरी पक्षपात करता , तो यही वृहस्पति का बढ़प्पन माना जाता है जो की किसी के साथ कभी अन्याय नहीं करते हैं और सबको सद्बुधि देने वाले गृह माने जाते हैं ! हम यह भी देखते हैं के दूसरा भाव मारकेश का भी मन जाता है वजह चाहे जो भी रही हो मसलन के अष्टम जो के आयु का भाव माना गया है उससे अष्टम यानी तृत भाव से दवाद्ष भाव यानी दूसरा भाव इसलिए इसे मारकेश माना जाएगा परन्तु दर्शन के रूप में देखें तो यही पता चलता है के शुक्र और चन्द्र के रूप में जो हम भौतिकता जब वृहस्पति रुपी प्यूरिटी को हम एक्सक्लूड यानि बाहर करना शुरू करते हैं तो वह मारक का काम करना शुरू कर देती है , जैसा के मैंने बोला के हम यहाँ इसको लॉजिकल एंगल से देखें तो यही निष्कर्ष निकलता है के बिना मतलब का, बिना मेहनत और गलत तरीकों से कमाया भौतिक सुख आखिरकार हमारे लिए मारकेश का ही काम करेगा,
तीसरा और आगे छठा भाव
तीसरा और आगे छठा भाव दोनों का स्वामी और कारक बुध व मंगल को माना जाएगा , यहाँ पर बुध भाई बहनों का और छठे भ्हाव में बंधू बांधवों का जो इए वे भी भाई बहनों के रूप में हमारे सामने आते हैं का कारक बन जाता है दूसरा है मंगल तो इन दोनों ग्रहों की इसलिए स्वामित्व मिला के बुध रुपी लचकता व जुबान से और पराक्रम से ही हम बंधुयों के साथ इंटरैक्ट करते हैं , बुध यानी जुबान का उचित प्रयोग ही हमें सबका मित्र या शत्रु बनाता है और सही व पॉजिटिव मंगल रुपी साहस और पराक्रम हमें विजयी बनाता है ! इस के साथ हम इनके दुसरे भाव यानि छठे भाव को भी देखें के जो की शत्रुता व रोग और ऋण का स्वामी होता है उस संधर्भ में हम देखते हैं के दोनों ग्रहों का सही तालमेल हमें विजेता बनाता है , शत्रु का यहाँ लॉजिकल मतलव जीवन रुपी संघर्ष से है तो यहाँ हम देखते हैं के कैसे वही दोनों गृह उन चीजों का सही रूप में निपटारा करते नज़र आते हैं, और कैसे दो धारी तलवार की तरह बन जाते ह
चतुर्थ भाव सुख भाव
चतुर्थ भाव की बात करें तो यह भाव सुख का मन जाता है और इस भाव का स्वामी चन्द्र और कारक वृहस्पति को माना जाता है , ये दोनों गृह जब आपस में मिलते हैं तो कुंडली में एक प्रकार का गजकेसरी योग बना देते हैं , यानी गज का यहाँ मतलब हाथी से है तो केसरी शेर को कहते हैं जब दोनों ताक़तवर मिल जाएँ तो क्या कहना , ठीक इसी प्रकार से इन दोनों ग्रहों की कल्पना की गयी और उन्हें सुख स्थान का स्वामी बनाया गया , वैसे भी हम देखें तो सिर्फ वृहस्पति ही ऐसा गृह नज़र आता है जो सौर मंडल में सबसे बड़ा और ज्ञान का दाता माना गया है अगर और किसी गृह को ये अधिकार दे दिया होता जैसे शुक्राचार्य को तो जो के सिर्फ वाहरी भौतिक सुखों का कारक है तो क्या होता ! चतुर्थ स्थान माँ का भी माना गया है और ज्योतिष में चन्द्र को माँ का कारक माना जाता है , माँ के आँचल में ही संतान को सुख मिलता है !
पंचम भाव
पंचम भाव का स्वामी सूर्य और कारक वही गुरु को बनाया गया क्यों की सूर्य रुपी प्रकाश द्वारा ही हम पंचम रुपी विद्या ग्रहण करते हैं और इसके संतान कारक होने का कारण भी यही है के संतान ही अपने माता पिता का नाम रौशन करती है , इसी पंचम से हर व्यक्ति की मानसिकता भी देखी जाती है तो उन कारकों की पोजीशन के अनुसार ही हम कोई निर्णय ले सकते हैं !
सातवाँ भाव
सातवाँ भाव पति या पत्नी और काम का माना जाता है और इसका स्वामी फिर शुक्र बन जाता है , शुक्र जिसे हम इस दुनिया में भौतिक सुखों का कारक मानते हैं वही नर यानी मंगल यानि रुधिर और मादा यानी शुक्र यानी वरीय रूप से श्रृष्टि का कारण बनता है वैसे भी लॉजिक एंगल से देखें तो शरीर में इन दोनों तत्वों का होना ही जीवन का कारण बनता है ! अब यही सप्तम भाव फिर मारक बन जाता है क्यों की जब हम भौतिकता की अधिकता या कह सकते हैं के भौतिक सुख को प्राप्त करने के एवज में मारकता सहन करनी ही पड़ती है !
अष्टम भाव
अष्टम भाव जिसे आयु और कष्टों का भाव माना जाता है उसका स्वामी फिर वही मंगल और कारक शनि बन जाता है तो अगर मंगल उर्जा के रूप में हमें जीवन देता है तो वही उर्जा दिए और वाती की तरह जब धीमी पड़नी शुरू हो जाती है तो जीवन ख़तम हो जाता है , जैसे जितना तेल हम दीपक में डालेंगे उतनी ही देर तक वह जलता रहेगा और उसके बाद उसे बुझना ही पड़ेगा इसी प्रक्कर से अष्टम भाव कार्य करता है !
नवम भाव
नवम भाव के बारे में चर्चा करेंगे के यह भाव धरम का और भाग्य का माना जाता है और इसका स्वामी और कारक सिर्फ एक की गृह बनता है वो है देव गुरु वृहस्पति जो के समस्त सुखों का कारक है और हमें यही सन्देश देता है के हमें मानवता का धर्म अपनाते हुए ही करमरत रहना चाहिए क्यों की चाहे इस संसार में आदमी ने कितने धरम बनाये हैं वो अपनी व्यक्तिगत सोच और परम्परा के अनुसार बनाये जाते हैं पर कल्पुरुख लग्न के रूप में ईश्वर ने सिर्फ एक ही धरम बनाया जो की सिर्फ मानवता ही है वैसे भी धरम का मतलब होता है धारण करना यानी आप किसी विचार को धारण करते हैं और उसके बनाये नियम में चलते हैं ये सब कुछ तभी बनाये गए क्यों की यह संसार विविद्ध संस्कृतियों के मेल जोल से बनता है और हम एक दुसरे का आदर करते हुए सबसे कुछ न कुछ सीखते रहते हैं पर इस चीज़ को न भूलते हुए के इश्वर को सिर्फ और सिर्फ मानवता का ही धरम अच्छा लगता है तभी जब काल्पुरुख कुंडली की ब्रह्मा ने कल्पना की होगी तो शुक्र रुपी भौतिकता का ख्याल ना आते हुए आध्यात्मिक देव गुरु वृहस्पति को ही इस पदवी का हक़दार बनाया गया क्यों की तमाम धरम ग्रंथों व गीता का भी अंत का सन्देश सिर्फ मोक्ष को ही माना गया जिसका सन्देश योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था और इस पर निरर्थक वादविवाद से कोई फायदा नहीं क्यों की मोक्ष का कांसेप्ट बहुत गहरा है जो हर किसी के बस की बात नहीं !
दसम भाव और एकादस भाव
दसम भाव का स्वामी और एकादस भाव का स्वामी सिर्फ शनि को माना गया है और कारक दसम भाव का कर्म को माना गया है दसम भाव ही कर्म करने की प्रेरणा देता है इसके और कारक जैसे सूर्य, बुध भी माने जाते हैं पर मुख्यता शनि को को इसका अधिकार मिलता है, वहीँ ग्यारह भाव का स्वामी भी शनि ही बनता है जिसका कारक गुरु को बनाया गया इससे यही निष्कर्ष निकलता है की शनि रुपी करम जो के धीमी गति से चलता रहता है वही एकादस के रूप में धीमी गति से गुरु के रूप में कैश फ्लो भी निरंतर देता रहता है यानी करम करोगे तभी फल के हकदार बन पायोगे यही शनि का सन्देश है और शनि का एक और भी सन्देश है की निष्काम भाव से किये हुए करम का असली फल गुरु के रूप में मिलता है , शनि सिर्फ और सिर्फ करम वो भी असली करम यानी वह करम जिससे किसी को हानि न पहुंचे उसका फल ज़रूर अच्छा देता है और गलत करम हालांकि हम कहीं ना कहीं करम करने को मजबूर भी होते हैं परन्तु विवेक और बुधि का इस्तेमाल तो खुद ही करना पड़ता है उस रूप में भी शनि का न्याय चक्र हमें नहीं छोड़ता उसकी चाहे जितनी पूजा कर लो, व्रत रख लो मंत्र पढ़ लो इससे शनि कभी प्रभावित नहीं होते , शनि की कृपा प्राप्त करने के लिए हमें सही कर्म करने पढेंगे तभी शनिदेव हमारी पुकार सुनेगें नहीं तो ये कुछ ऐसा हुआ के कबूतर ने बिल्ली को देखा और आँखें बंद कर ली उससे तो बिल्ली उसे ज़रूर खाएगी सो कर्म की असली परिभाषा को समझते हुए ही कर्म करेंगे तो ज़रूर अच्छा फल मिलेगा !
बारहवां भाव द्वादस यानी बारहवां भाव माना जाता है उसका स्वामी भी वृहस्पति को बनाया गया जो के नवं भाग्य और धरम का भी स्वामी है उसका सन्देश यही है के अच्छे कर्म करते रहने से ही मोक्ष की प्राप्ति होगी और ये भाव खर्च का भी बनता है जो यही सन्देश देता है की अच्छे कामों में हमें अपना धन लगाना चाहिए और इस संसार में प्रथम भाव के रूप में जनम लेने के बाद सांसारिक जिम्मेदारियों का अच्छे रूप से निर्वहन करने के बाद मोक्ष की प्राप्ति की और कदम बढ़ाने चाहियें तभी हमारा जीवन में आने का असली मकसद पूरण हो पायेगा,
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