माता पार्वती ने राजा भर्तहरी को श्मशान में चिता के अंगारों पर रोटी सेंकते देखा तो उनका मन द्रवित होने लगा और कलेजा मुँह को आ गया।
वह दौड़ी−दौड़ी अपने पति महेश के पास गयीं और कहने लगीं−”भगवन्! मुझे ऐसा लगता है कि आपका कठोर हृदय अपने अनन्य भक्तों की दुर्दशा देखकर भी नहीं पसीजता। उनके लिए भोजन की उचित व्यवस्था तो करनी ही चाहिए। देखे वह बेचारा भर्तृहरि अपनी कई दिन की भूख मृतक को पिण्ड के दिये गये आटे की रोटियाँ बनाकर शान्त कर रहा है।”
महादेव ने हँसते हुए कहा- “शुभे! ऐसे भक्तों के लिए मेरा द्वार सदैव खुला रहता है। परन्तु वह आना ही कहाँ चाहते हैं यदि कोई वस्तु दी भी जाये तो उसे स्वीकार नहीं करते। कष्ट उठाते रहते हैं फिर ऐसी स्थिति में तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं ?”
माँ भवानी आश्चर्य से बोलीं- “तो क्या आपके भक्तों को उदरपूर्ति हेतु भोजन की आवश्यकता अनुभव नहीं होती?”
श्री शिव जी ने कहा- परीक्षा लेने की तो तुम्हारी पुरानी आदत है यदि विश्वास न हो तो तुम स्वयं ही जाकर क्यों न पूछ लो।
भगवान शंकर का आदेश मिलते ही माँ पार्वती भिखारिन का छद्मवेश बनाकर भर्तृहरि के पास पहुँचीं और बोली-”बेटा! मैं पिछले कई दिन से भूखी हूँ। क्या मुझे भी कुछ खाने को दोगे ?”
अवश्य”भर्तृहरि ने केवल चार रोटियाँ सेंकी थीं उनमें से दो बुढ़िया माता के हाथ पर रख दीं। शेष दो रोटियों को खाने के लिए आसन लगा कर उपक्रम करने लगे।
भिखारिन ने दीन भाव से निवेदन किया-“बेटा! इन दो रोटियों से कैसे काम चलेगा ? मैं अपने परिवार में अकेली नहीं हूँ एक बुड्ढा पति भी है उसे भी कई दिन से खाने को नहीं मिला है।”
भर्तृहरि ने वे दोनों रोटियाँ भी भिखारिन के हाथ पर रख दीं। उन्हें बड़ा सन्तोष था कि इस भोजन से मुझ से भी अधिक भूखे प्राणियों का निर्वाह हो सकेगा। उन्होंने कमण्डल उठाकर पानी पिया। सन्तोष की साँस ली और वहाँ से उठकर जाने लगे।
तभी एक आवाज सुनाई दी- “वत्स! तुम कहाँ जा रहे हो?”
भर्तृहरि ने पीछे मुड़ कर देखा। माता पार्वती दर्शन देने के लिए पधारी हैं।
माता बोलीं- “मैं तुम्हारी साधना से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें जो वरदान माँगना हो माँगो।”
प्रणाम करते हुए भर्तृहरि ने कहा- “अभी तो अपनी और अपने पति की क्षुधा शाँत करने हेतु मुझसे रोटियाँ माँगकर ले गई थीं। जो स्वयं दूसरों के सम्मुख हाथ फैला कर अपना पेट भरता है वह क्या दे सकेगा। ऐसे भिखारी से मैं क्या माँगू।”
पार्वती जी ने अपना असली स्वरूप दिखाया और कहा- “मैं सर्वशक्ति मान हूँ। तुम्हारी परदुःख कातरता ( संवेदनशीलता ) से बहुत प्रसन्न हूँ जो चाहो सो वर माँगो।”
भर्तृहरि ने श्रद्धा पूर्वक जगदम्बा के चरणों में सर झुकाया और कहा- “यदि आप प्रसन्न हैं तो यह वर दें कि जो कुछ मुझे मिले उसे दीन−दुखियों के लिए लगाता रहूँ और अभावग्रस्त स्थिति में बिना मन को विचलित किये शान्त पूर्वक रह सकूँ।”
पार्वती जी ‘एवमस्तु’ कहकर भगवान् शिव के पास लौट गई।
त्रिकालदर्शी शम्भु यह सब देख रहे थे उन्होंने मुसकराते हुए कहा- “भद्रे, मेरे भक्त इसलिए दरिद्र नहीं रहते कि उन्हें कुछ मिलता नहीं है। परंतु भक्ति के साथ जुड़ी उदारता उनसे अधिकाधिक दान कराती रहती हैं और वे खाली हाथ रहकर भी विपुल सम्पत्तिवानों से अधिक सन्तुष्ट बने रहते है।”
विशेष
1, ये सब कुछ आप तभी कर पाओगे जब आप अपनी मनोवृतियों को सतोगुणी बनाओगे क्योंकि राजा भरथरी की ये सभी प्रवृतिया सतोगुणी/देविक थी ! तमोगुण आपको कभी भी सफलता की सीढिया नहीं चढ़ने देगा एवं आप महान व्यक्ति नहीं बन सकते है! जीवन के उद्देश्य भी नेक नहीं हो सकते है!
2, दान अधिकतम फलित तब होता है जब आपके महतत्त्व में त्याग की भावना अधिकतम होती है यानि आपके पास देने को थोड़ा हो और आप अपनी आवश्यकता को ध्यान में ना रखकर दूसरों का हित साधते हुए परमार्थ में अपनी नेक कमाई को दे देते है ! हमेशा ध्यान रखे अन्यायपूर्ण एवं अनैतिक रूप से अर्जित धन से दिया हुआ दान निष्फल होता है ! ऐसा धन सत्वगुण से युक्त / परिपूर्ण नहीं होता है !
भवसागर से पार होने के लिये मनुष्य शरीर रूपी सुन्दर नौका मिल गई है। सतर्क रहो कहीं ऐसा न हो कि वासना की भँवर में पड़कर नौका डूब जाय।
स्वयं कमाओ, स्वयं खाओ यह प्रकृति है । (रजो गुण)
दूसरा कमाए, तुम छीन कर खाओ यह विकृती है।(तमो गुण )
स्वयं कमाओ सबको खिलाओ, यह देविक संस्कृति हैं ! (सतो गुण )
देविक प्रवृतियों को धारण करे तभी आप देवलोक पाने के अधिकारी बनेंगे
हमेशा ध्यान में रखिये —
आप एक शुद्ध चेतना है यानि स्व ऊर्जा से प्रकाशित आत्मा ! माया ( अज्ञान ) ने आपकी आत्मा के शुद्ध स्वरुप को छीन रखा है ! अतः माया ( अज्ञान ) से पीछा छुडाइये और शुद्ध चेतना को प्राप्त कर परमानन्द का सुख भोगिए !
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