जो भोजन हम खाते हैं केवल उसी के द्वारा हमारे शरीर का निर्माण नहीं होता प्रत्युत भोजन करते समय जो मनः स्थिति होती है, जैसे सूक्ष्म प्रभाव हमारा मन फेंकता है, जिन संस्कारों में हम भोजन ग्रहण करते हैं, वे ही भोजन के साथ-साथ हमारे शरीर में बस जाते हैं और हमारे शरीर का निर्माण करते हैं। अतः भोजन करते समय आन्तरिक मनः स्थिति की स्वच्छता अतीव आवश्यक है। हमारे यहाँ आदि काल से भोजन करते समय की मनः स्थिति पर विशेष ध्यान दिया गया है।
स्मरण रखिए, उत्तम से उत्तम भोजन दूषित मनःस्थिति से दूषित हो सकता है और लाभ के स्थान पर उलटा हानि कर सकता है। क्रोध, चिंता, चिड़चिड़ेपन से उच्च कोटी का पौष्टिक भोजन भी व्यर्थ हो जाता है। गुस्से में किया हुआ भोजन उचित रीति से नहीं पचता। इसी प्रकार चिंतित अवस्था का भोजन नसों में घाव उत्पन्न कर देता है। हमारी मुलायम नाड़ियां क्रमशः जीवन विहीन हो जाती हैं और उनकी शक्ति में भी बड़ा परिवर्तन हो जाता है। इसके विपरित हास्य एवं प्रसन्नता शरीर तथा मन पर अपूर्व प्रभाव डालते हैं। अन्तःकरण की सुखद वृत्ति में किए हुए भोजन के साथ-साथ हम प्रसन्नता की पौष्टिक भावनाएँ भी खाते हैं जिसका विद्युत सा प्रभाव पड़ता है। आनन्द ईश्वरीय गुण है, क्लेश, चिंता, उद्वेग आसुरी प्रवृत्तियाँ। इन दोनों प्रकार की भावनाओं के अनुसार ही हमारा भोजन दैवी या आसुरी गुणों से युक्त बनता है।
क्या तुमने देखा है कि हँसते-हँसते दूध पीने वाला शिशु किस आसानी से अन्न खाकर पाचन कर सकता है, कैसा मोटा ताजा, सुडौल, सुकोमल बनता जाता है। उसके मुख पर सरलता खेलती है, उसी प्रकार निर्दोष, निर्विकार वृत्ति से आनन्दपूर्वक किया हुआ भोजन भी हमारे शरीर में आनन्दमय स्वास्थ्य दे सकता है।
हमारे जीवन के विकास के साथ-साथ गुप्त मन का भी विकास चलता रहता है और यह हमारे शरीर में अज्ञात रूप से ऐसे महत्वपूर्ण कार्य किया करता है जिसके बिना एक क्षण के लिए भी हमारा जीना संभव नहीं है। पोषण, रुधिराडभिसरण, मल विसर्जन, भोजन के समय अंग-प्रत्यंग में नूतन शक्ति का उत्पादन आदि सभी व्यापार अंतर्मन से होते हैं।
सुन्दर स्वास्थ्य के लिए पहली आवश्यक वस्तु है- सुन्दर विचार। उत्तम मनः स्थिति के बिना उन्नत स्वास्थ्य प्राप्त नहीं हो सकता। चिंतित मनःस्थिति से किए गए भोजन से यकृत बिगड़ता है और चित्त खिन्न एवं उदास रहता है। रक्त में भी दोष उत्पन्न हो जाता है और वह ज्ञान तन्तुओं और दिमाग में दूषित पदार्थ प्रवाहित करने लगता है। भय खाना, चिंता करना और भोजन करते समय यह सोचना कि इससे नुकसान न हो जाय-रोग को स्वयं आमन्त्रित करना है।
भोजन के समय कैसे विचार होने चाहिए ?
भोजन आपकी उत्तम मनःस्थिति से अधिक सुस्वादु बन जावेगा। अतः आप अपने विचारों को उत्तमता की ओर मोड़िये। उनमें शुभत्व की तीव्र भावना प्रवाहित कीजिए। जब भोजन सामने आये तो आप शान्त हों स्थिर एवं प्रसन्न हों। स्मरण रखिए, भोजन करना पाप करना नहीं है। यह दिनचर्या का सबसे प्रधान काम है। अतः थोड़ी देर के लिए अपनी चिंताओं को भूल जाइये। दिन भर की दुःख तथा विपत्ति को एक कोने में रख दीजिए। क्रोध, चिड़चिड़ेपन, गुस्से को विस्मृत कर दीजिए। भोजन की थाली सामने आते ही थोड़ा सा जल लेकर उसके चारों ओर से फेर दीजिए और कुछ काल के लिए नेत्र मूँद कर मन में कहिए- “हे प्रभो यह भोजन आपको समर्पित है। इसे पवित्र, सुस्वादु, पौष्टिक एवं अमृतमय बना दीजिए। इसमें सब बढ़िया तत्वों का समावेश कीजिए।” नेत्र खोलने पर ऐसा सोचिए जैसे भगवान ने भोग लगा लिया हो और आपकी आकाँक्षा पूर्ण हो गई हो।
आपके प्रत्येक कौर के साथ उत्तम विचार भी भोजन के साथ मिश्रित होकर पहुँचने चाहिए। आप सोचते रहिए- “इस कौर के द्वारा मैं अपने शरीर में पौष्टिक तत्व पहुँचा रहा हूँ। खूब चबा-चबा कर मैं उससे अमृत का मजा ले रहा हूँ। यह भोजन मेरे लिए अमृत का स्रोत है। मुझे अपरिमित प्रसन्नता व आनन्द आ रहा है। यह मुझे निरोगता, बल एवं शक्ति सम्पन्न कर रहा है। इससे मेरी प्राण शक्ति निरन्तर वृद्धि पर है।”
पुष्ट संकेत देने से भोजन के अणु-अणु में अपार शक्ति उत्पन्न हो जाती है। अतः वह समय तो बड़े उत्सव का होना चाहिए। आप में से प्रसन्नता फूट पड़नी चाहिए। हँसी, मजाक, आनन्दोत्पादक खबरें, चित्ताकर्षक दृश्य, उत्तम प्रकार के पुरुषों की चर्चा, मजेदार वार्तालाप में मग्न रहना चाहिए। मित्रों के साथ भोजन करने से उसमें दूना स्वाद आ जाता है। अतः भोजन करते समय हृदय में जितने भी कल्याणकारी, स्वास्थ्यप्रद, उत्तम-उत्तम पुष्टिकर भाव भर दिये जायं उतना ही अच्छा है। स्मरण रखिए, उत्तम मनोभावों से एक आध्यात्म शक्ति निकल कर भोजन को अधिक पौष्टिक बनाती है। जिस विचार से आप भोजन को स्पर्श करेंगे उसमें वैसे ही गुणों का समावेश हो जाएगा । अपनी टूटी-फूटी झोंपड़ी में रूखी-सूखी रोटी खाकर आप मनोभावों द्वारा उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं।
Credit – Chetan Sharma