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श्रीमद्भगवद्गीता अठारहवाँ अध्याय – मोक्षसंन्यासयोग, श्लोक 55
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श्रीमद्भगवद्गीता अठारहवाँ अध्याय – मोक्षसंन्यासयोग, श्लोक 55 

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।।55।।
केवल भक्ति से मुझ भगवान् को यथारूप में जाना जा सकता है, जब मनुष्य ऐसी भक्ति से मेरे पूर्ण भावनामृत में होता है, तो वह वैकुण्ठ जगत् में प्रवेश कर सकता है।
सज्जनों, भगवान् श्रीकॄष्ण तथा उनके स्वांशों को न तो मनोधर्म द्वारा जाना जा सकता है और न ही अभक्तगण उन्हें समझ पाते है, यदि कोई वयक्ति भगवान् को समझना चाहता है तो उसे शुद्ध भक्त के सानिध्य में शुद्ध भक्ति ग्रहण करनी होती है, अन्यथा भगवान् सम्बन्धी सत्य यानी तत्त्व उससे सदा छिपा रहेगा, जैसा कि सातवें अध्याय में कहा जा चुका है- “नाहं प्रकाश: सर्वस्य” मैं सबों के समक्ष प्रकट नहीं होता, केवल पान्डित्य या मनोधर्म द्वारा ईश्वर को नहीं समझा जा सकता।
श्रीकॄष्ण को केवल वही समझ पाता है जो भगवद्भक्ति में तत्पर रहता है, इसमें पढ़ाई के ड़िग्री की उपाधियाँ सहायक नहीं होती, जो वयक्ति श्रीकॄष्ण के विज्ञान-तत्त्व से पूर्णतया अवगत है, वही वैकुण्ठजगत् या श्रीकॄष्ण के धाम में प्रवेश कर सकता है, ब्रह्मभूत होने का अर्थ यह नहीं है कि वह अपना स्वरूप खो बैठता है, भक्ति तो रहती ही है और जब तक भक्ति का अस्तित्व रहता है, तब तक ईश्वर, भक्त तथा भक्ति की विधि रहती है, ऐसे ज्ञान का नाश मुक्ति के बाद भी नहीं होता, मुक्ति का अर्थ देहात्मबुद्धि से मुक्ति प्राप्त करना है।
आध्यात्मिक जीवन में वैसा ही अन्तर, वही वयक्तित्व यानी स्वरूप बना रहता है, लेकिन शुद्ध भगवद्भक्ति में ही विशते शब्द का अर्थ है मुझमें प्रवेश करता है, भ्रमवश यह नहीं सोचना चाहिये कि यह शब्द अद्वैतवाद का पोषक है और मनुष्य निर्गुण ब्रह्म से एकाकार हो जाता है, ऐसा बिल्कुल नहीं है, विशते का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने वयक्तित्व सहित भगवान् के धाम में, भगवान् की संगति करने तथा उनकी सेवा करने के लिये प्रवेश कर सकता है।
जैसे हरा पक्षी यानी शुक हरे वृक्ष में इसलिये प्रवेश नहीं करता कि वह वृक्ष से तदाकार यानी लीन हो जाय, बल्कि वह वृक्ष के फलों का भोग करने के लिये प्रवेश करता है, निर्विशेषवादी सामान्यतया समुद्र में गिरने वाली तथा समुद्र से मिलने वाली नदी का दृष्टान्त प्रस्तुत करते है, यह निर्विशेषवादियों के लिये आनन्द का विषय हो सकता है, लेकिन साकारवादी अपने वयक्तित्व को उसी प्रकार बनाये रखना चाहता है जिस प्रकार समुद्र में एक जलचर प्राणी, यदि हम समुद्र की गहराई में प्रवेश करें तो हमें अनेकानेक जीव मिलते है, केवल समुद्र की ऊपरी जानकारी पर्याप्त नहीं है, समुद्र की गहराई में रहने वाले जलचर प्राणियों की भी जानकारी रखना आवश्यक हैं।
भक्त अपनी शुद्ध भक्ति के कारण परमेश्वर के दिव्य गुणों तथा ऐश्वर्य को यथार्थ रुप में जान सकता है, जैसा कि ग्यारवें अध्याय में कहा जा चुका है, केवल भक्ति द्वारा इसे समझा जा सकता है, इसी की पुष्टि यहाँ भी हुई है, मनुष्य भक्ति के द्वारा भगवान् को समझ सकता है और उनके धाम में प्रवेश कर सकता है, भौतिक बुद्धि से मुक्ति की अवस्था यानी ब्रह्मभूत अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद भगवान् के विषय में श्रवण करने से भक्ति का शुभारम्भ होता है, जब कोई परमेश्वर के विषय में श्रवण करता है तो स्वत: ब्रह्मभूत अवस्था का उदय होता है और भौतिक कल्मष- यथा लोभ तथा कामभाव का विलोप हो जाता है।
सज्जनों!! ज्यों-ज्यों भक्त के ह्रदय से काम तथा इच्छायें विलुप्त होती जाती हैं, त्यों-त्यों वह भगवद्भक्ति के प्रति अधिक आसक्त होता जाता है और इस तरह वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है, जीवन की उस स्थिति में वह भगवान् को समझ सकता है, श्रीमद्भागवत में वास्तविक भक्तिमयी मुक्ति की जो परिभाषा दी गई है उसके अनुसार यह जीव का अपने सवरूप या अपनी निजी स्वाभाविक स्थिति में पुन: प्रतिष्छापित हो जाना है, मुक्ति के बाद भक्तियोग चलता रहता है, इसकी पुष्टि वेदान्तसूत्र में भी हुई है- “आप्रायणान् तत्रापि हि दृष्टम्” इसका अर्थ है कि मुक्ति के बाद भी भक्तियोग चलता रहता है, प्रत्येक जीव परमेश्वर का अंश है, इसलिये उसकी स्वाभाविक स्थिति सेवा करने की है, मुक्ति के बाद यह सेवा कभी रुकती नहीं, वास्तविक मुक्ति तो देहात्मबुद्धि की भ्रान्त धारणा से मुक्त होना हैं।
भाई-बहनों, मनुष्य का सत्य सर्वोपरि है, संसार के सारे सत्यों में सबसे अनेरा सत्य, सत्य के नाम पर अन्य जितनी भी स्थापनायें हुई है, उन सबका सम्बन्ध मनुष्य के साथ है, स्वर्ग की अगर संरचना हुई है तो वह भी मनुष्य की देन है और नरक की अवधारणा है तो वह भी मनुष्य का ही प्रतिपादन है, परमात्मा तक भी मनुष्य की ही पराकाष्ठा का नाम है, हाँ, अगर सृष्टि की परमात्मा का कर्त्तव्य समझें तो मनुष्य इस कर्त्तव्य की श्रेष्ठतम कृति है, मनुष्य के अन्त:करण में ही देवत्व, पशुत्व और प्रभुत्व तक के बसेरे है, मनुष्य का कोई अपवाद नहीं हैं, मनुष्य सब अपवादों का अपवाद है, जीवन के उतार-चढ़ाव, सारे मूल्य, यथार्थ और सारे आदर्श मनुष्य से सम्बद्ध है।
मनुष्य को जितनी ज्यादा गरिमा दी जा सके, दी जानी चाहिये, जब एक मनुष्य, मनुष्य की ही बात करता है, तो एक मनुष्य के लिये मनुष्य से बढ़कर और कोई भी आदर्श नहीं हो सकता, हम अपने अतीत में चाहे देवत्व के दीप से अभिमंडित रहे हों या नरक की कारगुजारियों से गुजरते रहे हों, हम अपने अतीत की चर्चा नहीं करेंगे, हमारा वर्तमान मनुष्यत्व का है, हमारे लिये यह काफी है, हमारा अतीत और भविष्य, चाहे वह देवत्व का हो, पशुत्व का या प्रभुत्व का, उसमें सच्चाईयाँ कम, सत्य के नाम पर कल्पनाओं के चित्र ज्यादा खींचे गये हैं, हम मनुष्य हैं, हमारे लिये यह गौरव की बात हैं।
भले ही पहले सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग रहे हों, लेकिन हम अपने युग को हीन और दरिद्र नहीं कह सकते, हम जिस युग में पैदा हुये है, हमारे लिये तो वही सबसे सुन्दर, सबसे सही और सबसे समायोजित होने वाला युग है, हम अपने युग को कलियुग कहकर समय की उपेक्षा नहीं करेंगे, हम वर्तमान के द्रष्टा है, अपने वर्तमान को हम समय का निकृष्ट रुप नहीं कह सकते, कलयुगी वयक्ति तो वह कहलाता है जो सोया हुआ है, मूर्च्छित है, वह वयक्ति हमेशा सतयुगी ही कहलायेगा जिसकी चेतना में जागरण का शंखनाद हो चुका है, सुषुप्त चेतना ही कलयुगी है और जाग्रत चेतना ही सतयुगी का पर्याय हैं।
जय श्री कॄष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

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