राम” अत्यन्त विलक्षण शब्द है । साधकों के द्वारा “बीज मन्त्र” के रूप में “राम” का प्रयोग अनादि काल से हो रहा है और न जाने कितने साधक इस मन्त्र के सहारे परमपद च्राप्त कर चुके हैं । आज “राम” कहते ही दशरथ – पुत्र धनुर्धारी राम का चित्र उभरता है परन्तु “राम” शब्द तो पहले से ही था । तभी तो गुरु वशिष्ठ ने दशरथ के प्रथम पुत्र को यह सर्वश्रेष्ठ नाम प्रदान किया । धार्मिक परम्परा में “राम” और “ओऽम्” प्रतीकात्मक है और “राम” सार्थक । राम शब्द में आखिर ऐसा क्या है ? इस प्रश्न का यही उत्तर हो सकता है कि “राम” में क्या नहीं है ?
थोड़ा सा विचार करिए । “राम” तीन अक्षरों से मिलकर बना है । “र” + “अ” + “म” “राम” के इन तीन घटक अक्षरों को { 6 } छः प्रकार से व्यवस्थित किया जा सकता है ।
“र” + “अ” + “म” = राम
“र” + “म” + “अ” = रमा
“म” + “अ” + “र” = मार { कामदेव }
“म” + “र” + “अ” = मरा
“अ” + “म” + “र” = अमर
“अ” + “र” + “म” = अरम
उपरोक्त प्रकार देखने से स्पष्ट हो जाता है कि इन तीन अक्षरों में सृष्टि की उत्पत्ति सृजन प्रसार और विलय सब समाया हुआ है . और इतना ही नहीं यह भी प्रकट हो जाता है कि प्रत्यक्षतः विरोधाभासी दिखनेवाले सब एक ही हैं । मायावश ही उनके विरोध का आभास होता है ।
विस्तार से देखें – जो “राम” पुरुष हैं वही “रमा” अर्थात् स्त्री प्रकृति है । “राम” पुरुष रूप में सारी विश्व – ब्रह्माण्ड सृष्टि का कारण है , आक्रमक बल है। वही “रमा” स्त्री प्रकृति के रूप में संग्राहक है सृजन की निर्माणकर्ता है । राम पुरु बल प्रधान है , “रमा” संवेदना प्रधान । “राम” बुद्धि प्रधान है , विश्लेषणात्मक है। रमा भावना प्रधान है , संश्लेषणात्मक है ।
बुद्धि मार्ग निर्देश करती है , भावना { “चित्त” } स्थायित्व प्रदान करती है । सृजन के ये दो आधार हैं । लेकिन जब तक “राम” और “रमा” अलग – अलग रहें सृजन असम्भव है । दोनों नदी के दो पाट हैं । इनको संयुक्त करता है “म” + “अ” + “र” = मार या काम । भगवान् बुद्ध द्वारा “मार विजय” की बड़ी प्रशस्ति है , ऋषियों द्वारा काम विजय हमेशा एक आदर्श रहा , “नारद मोह” का पूरा आख्यान अत्यन्त सारगर्भित है किन्तु “मार” है , तभी उसके परे जाकर परमपद या “एकत्व” प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा राम और रमा , मार द्वारा संयुक्त होकर सृष्टि को फैलाते ही जाएँगे ।
पुरुष और प्रकृति अलग – अलग नहीं हैं और न उनके परस्पर सम्बन्ध की ही कोई स्वतन्त्र सत्ता है । जो “राम” है वही “रमा” है और वही “मार” है ।
नारायण ! अब दूसरा युग्म लें । जो “अमर” है वही “मरा” है । अर्थात् तात्विक दृष्टि से देखें तो अमरत्व और मरणधर्मिता , शाश्वता और क्षणभंगुरता अलग – अलग नहीं हैं । जो क्षणभंगुर दिखाई देता है , जो सतत परिवर्तनशील दिखाई देता है , वही अमर है , शाश्वत है । मृत्यु और परिवर्तन तो आभास मात्र है , बुद्धि के द्वारा उत्पन्न भ्रम है । मृत्यु होती ही नहीं ।
मृत्यु से बड़ा कोई झूठ नहीं । फिर भी अज्ञान की अवस्था में मृत्यु से बड़ा कोई “सत्य” नहीं । अज्ञान की दशा में जो मृत्यु है वही ज्ञान की स्थिति में अमरत्व है । जब तक मृत्यु वास्तविकता लग रही है तब तो “मरा” ही है वह जीवित ही कहाँ ? जीवन के प्रवाह के ये दो पक्षों के मूल सत्य , मृत्यु और अमरत्व , “अमर” और “मरा” “राम” में ही निहित हैं ।
और साथ ही यह यथार्थ भी कि दोनों एक साथ सदैव उपस्थित हैं । प्रत्येक वस्तु का चरम यथार्थ शाश्वत , नित्य , अपरिवर्तनशील , अमर , अनादि और अनन्त है जब कि उसका आभासी स्वरूप या विवर्त क्षणभंगुर , अनित्य , सतत परिवर्तनशील , मरणधर्मा और समित है ।
नारायण ! अब छठा शब्द बनता है “अ” + “र” + “म” = अरम अर्थात् जिसमें रमा न जा सके । वड़ी विचित्र बात लगती है कि जिसे विद्वान् , गुणी जन कहते है कि सब में “रमा” है व “अरम” कैसे हो गया ? विद्वान् और “सिद्ध” में यही भेद है । विद्वान् “उसे” देखता है और समझने की चेष्टा करता है । सिद्ध उसे अनुभव करता है और , उसके साथ एकाकार हो जाता है । बाबा तुलसीदासजी ने गाया है -“जानत तुमहिं , तुमहिं होय जाई” ।
अह ह ह ! बूँद सागर में गिरी तो स्वयं सागर हो गई । जब बून्द बची ही नहीं तो रमेगा कौन ? वह परासत्ता , वह चरम वास्तविकता , वह परब्रह्म तो “अरम” ही हो सकता है ।
इस प्रकार हम देखते है कि जो कुछ भी जानने योग्य है , जो कुछ भी मनन योग्य है , वह सब “राम” शब्द में अन्तर्निहित है । योगियों और सिद्ध गुरुजनों ने संकेत दिया है कि “ज्ञान” बाहर से नहीं लिया या दिया जा सकता । यह तो अन्दर से प्रस्फुटित होता है । आत्मा “सर्वज्ञ” है साधना के प्रभाव से किसी भी शब्द में निहित सारे अर्थ स्वयं प्रकट हो जाते हैं ।
रामचरितमानसकार कहते है – “सोइ जाने जेहि देहु जनाई” ।
इस विराट् अर्थवत्ता के कारण ही “राम : नाम ” महामन्त्र है और उसके अनवरत जप से कालान्तर में उसमें निहित सार , अर्थ और सृष्टि के सारे रहस्य स्वतः प्रकट होकर साधक को जीवन्मुक्त का परमपद प्रदान करते हैं।(नारायण स्मृति)
Related posts
Subscribe for newsletter
* You will receive the latest news and updates on your favorite celebrities!
सातवें घर में बृहस्पति और मंगल प्रभाव
वैदिक ज्योतिष के अनुसार सातवें घर से पति-पत्नी, सेक्स, पार्टनरशिप, लीगल कॉन्ट्रैक्ट आदि का विचार कर सकते हैं इस भाव…
घर से नकारात्मक ऊर्जा हटाने के लिये उपाय
मित्रों जैसा की आप जानते है की हर घर में कोई न कोई वास्तु दोष अवश्य मिलता है ऐसे में…
रोजमर्रा की आदतों से सुधारें अपना घर
जब भी हमारे घर पर कोई भी बाहर से आये, चाहे मेहमान हो या कोई काम करने वाला, उसे स्वच्छ…
27 नक्षत्र और उनसे सम्बंधित वनस्पती
मानसून के समय इन नक्षत्रों से सम्बंधित वनसपतियो को रोप कर और उनकी देखभाल करके जीवन मे आ रही समास्यो…
नवरात्र 2024 कैलेंडर, पूजा सामग्री व पूजन विधि
नवरात्रि में मां दुर्गा के 9 रूपो का पूजन किया जाता है। इस दौरान मां दुर्गा को प्रसन्न करने के…
श्री गणेश चतुर्थी | दस दिनोन में गणेश जी के 11 उपाय
धर्म ग्रंथों के अनुसार, गणेश चतुर्थी के दिन भगवान श्रीगणेश का प्राकट्य माना जाता है। इस दिन भगवान श्रीगणेश को…
अक्षय तृतीया पर बना रहा है शुभ योग, धन- लाभ होने के संकेत: अक्षय तृतीया पर करें ये काम
हिंदू धर्म में अक्षय तृतीया का पावन पर्व बडे़ धूम- धाम से मनाया जाता है। इस दिन का बहुत अधिक…
नवरात्रों में कन्या पूजन क्यों ?
माता की प्रसन्नता के लिए नवरात्रों में अष्टमी अथवा नवमी के दिन कन्या पूजन कर उन्हें खाना खिलाने का का…