ज्योतिष में पितृदोष का प्रबल कारक राहू, केतु को माना गया है। यदि उनका संबंध सूर्य, चंद्र, मंगल, शनि, गुरु आदि से हो तो व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के पितृदोषों की संभावना रहती है।*
*सवार्थ चिंतामणि के अनुसार-राहू-केतु समायुक्ते बाधा पैशाचकी स्मृता। निम्र स्तर में राहू पिशाच बाधा, व्यभिचार, विष द्वारा मृत्यु, सर्प के आकार का आकस्मिक प्रभावकारी (विस्फोटक) निवास, सर्प की बांबी एवं अतिवृद्धावस्था, कपटी या षड्यंत्रकारी, असत्यवादी आचरण माना गया है। उच्च स्तर में राहू ध्यान, धारणा समाधि आदि का कारक है।
केतु-नागलोक, चर्मरोग, भयानक भूल, नीच आत्माओं से कष्ट, कुत्ते या मुर्गे का काटना आदि कार्यों का कारक माना जाता है। उच्च स्तर में मोक्ष प्राप्ति, ब्रह्मज्ञान, मंत्र शास्त्र, गणेश, शिव या विष्णु आदि का कारकत्व इसे प्राप्त है।
पितृशाप 10 प्रकार के हैं–
(1) अनापत्य योग (नि:संतान योग),
(2) सर्पशाप,
(3) पितृशाप
(4) मातृशाप,
(5) भ्रातृशाप,
(6) मामाशाप,
(7) पत्नीशाप,
(8)ब्रह्मशाप,
(9) प्रेतशाप,
(10) कुलदेव के शाप से पुत्रहीनता।
संतान प्राप्ति के लिए इन शापों की विधिवत शांति जरूरी है।*
पितृ दोष का कारण:-*
*1. जन्म कुंडली के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम व दशम भावों में से किसी एक भाव पर पितृ कारक ग्रह सूर्य की राहु अथवा शनि के साथ युति हो तो जातक को पितृ दोष होता है।*
*2. लग्न तथा चन्द्र कुंडली में नवां भाव, नवमेश अगर राहु या केतु से ग्रसित है तो होता है।*
*3. जन्म कुंडली में लग्नेश यदि त्रिक भाव (6,8 या 12) में स्थित हो तथा राहु लग्न भाव में हो तब भी पितृदोष होता है।*
*4. अष्टमेश का लग्नेश, पंचमेश अथवा नवमेश के साथ स्थान परिवर्तन योग भी पितृ दोष का निर्माण करता है।*
*5. दशम भाव को भी पिता का घर माना गया है अतः दशमेश छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो इसका राहु से दृष्टि या योग आदि का संबंध हो तो भी पितृदोष होता है।*
*6. यदि आठवें या बारहवें भाव में गुरु-राहु का योग और पंचम भाव में सूर्य-शनि या मंगल आदि क्रूर ग्रहों की स्थिति हो तो पितृ दोष के कारण संतान कष्ट या संतान सुख में कमी रहती है।*
*7. अगर कुंडली में पितृ कारक ग्रह सूर्य अथवा रक्त कारक ग्रह मंगल इन दोनों में से कोई भी नवम भाव में नीच का होकर बैठा हो और उस पर राहु/केतु की दृष्टि हो तो पितृ दोष का निर्माण हो जाता है॥*
*8. यदि कुण्डली में में अष्टमेश राहु के नक्षत्र में तथा राहु अष्टमेश के नक्षत्र में स्थित हो तथा लग्नेश निर्बल एव पीड़ित हो तो जातक पितृ दोष एव भूत प्रेत आदि से शीघ्र प्रभावित होते है॥*
*9. यदि जातक का जन्म सूर्य चन्द्र ग्रहण में हो तथा घटित होने वाले ग्रहण का का सम्बन्ध जातक के लग्न,षष्ट एव अष्टम भाव बन रहा हो तो ऐसे जातक पितृ दोष,भूत प्रेत,एव अतृप्त आत्माओं के प्रभाव से पीड़ित रहते है॥*
*10. यदि लग्नेश जन्म कुण्डली में अथवा नवमांश कुण्डली में अपनी नीच राशि में स्थित हो तथा राहु ,शनि,मंगल के प्रभाव से युक्त हो तो जातक पितृ दोष,अतृप्त आत्माओं का शिकार होता है॥*
*11. यदि जन्म कुण्डली में अष्टमेश पंचम भाव तथा पंचमेश अष्टम भाव में स्थित हो तथा चतुर्थेश षष्ठ भाव में स्थित हो और लग्न और लग्नेश पापकर्तरी योग में स्थित हो तो जातक मातृ शाप एव अतृप्त आत्माओं से प्रभावित होता है॥*
*12. यदि चन्द्रमा जन्म कुण्डली अथवा नवमांश कुण्डली में अपनी नीच राशि में स्थित हो तथा चन्द्रमा एव लग्नेश का सम्बन्ध क्रूर एव पाप ग्रहो से बन रहा हो तो जातक पितृ दोष,प्रेतज्वर,एव अतृप्त आत्माओं से प्रभावित होता है॥*
*13. यदि कुंडली में शनि एव चन्द्रमा की युति हो अथवा चन्द्रमा शनि के नक्षत्र में,अथवा शनि चन्द्रमा के नक्षत्र में स्थित हो तो जातक ऊपरी हवा,पितृदोष,एव अतृप्त आत्माओं से शीघ्र प्रभावित होता है॥*
*14. यदि लग्नेश जन्म कुंडली में अपनी शत्रु राशि में निर्बल आव दूषित होकर स्थित हो तथा क्रूर एव पाप ग्रहो से युक्त हो तथा शुभ ग्रहो की दृस्टि लग्न भाव एव लग्नेश पर नहीं पड़ रही हो,तो जातक ऊपरी हवा,एव पितृ दोष से पीड़ित होता है॥*
*15. यदि जातक का जन्म कृष्ण पक्ष की अष्टमी से शुक्ल पक्ष की सप्तमी के मध्य हुआ हो और चन्द्रमा अस्त,निर्बल,एव दूषित हो,अथवा चन्द्रमा पक्षबल में निर्बल हो,तथा राहु शनि से युक्त नक्षत्रिये परिवर्तन बना रहा हो तो जातक अद्रशय रूप से मानशिक उन्माद का शिकार होता है॥*
*16. यदि जन्म कुंडली में चन्द्रमा राहु का नक्षत्रीय योग परिवर्तन योग बना रहा हो,तथा चन्द्रमा पर अन्य क्रूर अव पाप ग्रहो का प्रभाव एव लग्न एव लग्नेश भाव पर हो तो जातक अतृपत आत्माओं का का प्रभाव होता है॥*
*17. यदि कुंडली में चन्द्रमा राहु के नक्षत्र में स्थित हो तथा अन्य क्रूर एव पाप ग्रहो का प्रभाव चन्द्रमा,लग्नेश,एव लग्न भाव पर हो तो जातक अतृप्त आत्माओं से प्रभावित होता है॥*
*18. यदि कुंडली में गुरु का सम्बन्ध राहु से हो तथा लग्नेश एव लग्न भाव पापकर्तरी योग में हो तो जातक को अतृप्त आत्माए अधिक परेशान करती है॥*
*19. यदि बुध एव राहु में नक्षत्रीय परिवर्तन हो तथा लग्नेश निर्बल होकर अष्टम भाव में स्थित हो साथ ही लग्न एव लग्नेश पर क्रूर एव पाप ग्रहो का प्रभाव हो तो जातक अतृप्त आत्माओं से परेसान रहता है और मनोरोगी बन जाता है॥*
*20. यदि कुंडली में अष्टमेश लग्न में स्थित हो तथा लग्न भाव तथा लग्नेश पर अन्य क्रूर तथा पाप ग्रहो का प्रभाव हो तो जातक अतृपत आत्माओं का शिकार होता है॥*
*21. यदि जन्म कुण्डली में राहु जिस राशि में स्थित हो उसका स्वामी निर्बल एव पीड़ित होकर अष्टम भाव में स्थित हो तथा लग्न एव लग्नेश पापकर्तरी योग में स्थित हो तो जातक ऊपरी हवा,प्रेतज्वर,और अतृप्त आत्माओं से परेशान रहता है।
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