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गाय सेवा का फल
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गाय सेवा का फल 

गाय सेवा का फल

आज से लगभग 8 हजार वर्ष पूर्व त्रेता युग में अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट महाराज दिलीप की कोई संतान नहीं थी। एक बार वह अपनी पत्नी के साथ गुरु वशिष्ठ के आश्रम में गये। गुरु वशिष्ठ ने उनके अचानक आगमन के बारे में पूछा। तब राजा दिलीप ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा प्रकट की और महर्षि से पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की। गाय सेवा

महर्षि ने ध्यान करके राजा के निःसंतान होने का कारण समझा।

उन्होंने राजा दिलीप से कहा – “राजन जब आप देवराज इंद्र से मिलकर स्वर्ग से पृथ्वी पर आ रहे थे,

तब आपने रास्ते में खड़ी कामधेनु को प्रणाम नहीं किया था। जल्दबाजी के कारण आपने कामधेनु को नहीं देखा,

कामधेनु ने आपको शाप दे दिया था कि आपको कामधेनु नहीं मिलेगी।” एक बेटा अपने बच्चों की सेवा के बिना।

महाराज दिलीप ने कहा – “गुरुदेव सभी गायें कामधेनु की संतान हैं।

गाय की सेवा एक महान कार्य है, मैं गायों की सेवा अवश्य करूंगा।”

गुरु वसिष्ठ ने कहा- राजन् मेरे आश्रम में जो नंदिनी नाम की गाय है,

वह कामधेनु की पुत्री है। तुम वही सेवा करो. ”

महाराज दिलीप नन्दिनी के पीछे-पीछे वन में चले गये। जब वह खड़ा होता तो राजा दिलीप भी खड़े हो जाते।

वह चलता तो उसके पीछे-पीछे चलता, उसकी बैठकी पर बैठ जाता और उसके प्याऊ पर पानी पीता।

शाम को जब नंदिनी आश्रम लौटती तो वह भी उसके साथ लौट आती ।

रानी सुदक्षिणा सुबह-शाम उस गाय की पूजा करती थी। इस प्रकार महाराज दिलीप ने लगातार एक महीने तक नंदिनी की सेवा की।

सेवा

सेवा करते हुए एक महीना पूरा हो रहा था, उस दिन महाराज को जंगल में कुछ सुंदर फूल दिखाई देने लगे

और नंदिनी आगे बढ़ गई। दो-चार क्षणों में उस गाय की आवाज सुनाई दी।

जब महाराज दौड़ते हुए वहां पहुंचे तो देखते हैं कि एक विशालकाय शेर उस सुंदर गाय को पकड़कर उस झरने के पास बैठा है।

सिंह को मारकर गाय को छुड़ाने के लिए राजा दिलीप ने अपना धनुष उठाया

और जब वह तरकश से तीर निकालने लगे तो उनका हाथ तरकश से चिपक गया।

उस विशाल सिंह ने मनुष्य की आवाज में राजा दिलीप से कहा, “राजन! मैं कोई साधारण सिंह नहीं हूं।

मैं भगवान शिव का सेवक हूं। अब आप वापस जाएं। मुझे भूख लगी है। मैं इसे खाकर अपनी भूख शांत करूंगा।”

महाराज दिलीप ने नम्रतापूर्वक कहा- आप भगवान शिव के सेवक हैं, अत: मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

जब तुमने कृपापूर्वक अपना परिचय दे दिया है तो इतनी कृपा करो कि इस गाय को छोड़ दो और यदि तुम्हें अपनी क्षुधा मिटानी हो तो मुझे अपना खाना बना लो।

उस शेर ने महाराज को बहुत समझाया, लेकिन राजा दिलीप नहीं माने और अंततः दोनों हाथ जोड़कर शेर के सामने झुक गए कि शेर कुछ ही क्षणों में उन्हें अपना खाना बना लेगा।

तभी नंदिनी ने मनुष्य की आवाज में कहा – “महाराज आप उठें। यह शेर नहीं है।

सब कुछ मेरी माया थी। मैं आपकी परीक्षा ले रही थी। मैं आपकी सेवा से अभिभूत हूं।”

घटना के कुछ महीनों बाद रानी गर्भवती हो गई और उसने एक बच्चे को जन्म दिया।

उनके पुत्र का नाम रघु था। महाराज रघु के नाम पर ही रघुवंश की स्थापना हुई।

कई पीढ़ियों के बाद इसी कुल में भगवान श्रीराम का अवतार हुआ।

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